अनवर चौहान
जातिगत जनगणना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए गले की फांस बनने जा रही है। लोकसभा 2024 के चुनाव में ये बड़ा मुद्दा होगा। भारत की 26 मुखालिफ पार्टियों ने 18 जुलाई को बेंगलुरु में बैठक के बाद एक साझा बयान जारी किया था. इसमें विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ ने देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग की है.भारत में जातिगत जनगणना की मांग दशकों पुरानी है. इसका मक़सद अलग-अलग जातियों की संख्या के आधार पर उन्हें सरकारी नौकरी में आरक्षण देना और ज़रूरतमंदों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाना बताया जाता है.
माना जाता है कि बीजेपी को इस तरह की जनगणना से डर यह है कि इससे अगड़ी जातियों के उसके वोटर नाराज़ हो सकते हैं, इसके अलावा बीजेपी का परंपरागत हिन्दू वोट बैंक इससे बिखर सकता है. वहीं विपक्ष सामाजिक न्याय के नाम पर साल 2024 के चुनावों में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाकर बीजेपी पर दबाव बनाने और दलित, पिछड़े वोट को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहा है. इससे पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2010-11 में देशभर में आर्थिक-सामाजिक और जातिगत गणना करवाई थी लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए थे.इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई. लेकिन इसके आंकड़े भी कभी सार्वजानिक नहीं किए गए.
विपक्ष की मांग
जातियों की जनसंख्या के मुताबिक़ आरक्षण की मांग सबसे पहले 1980 के दशक में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने की थी. यूपी की समाजवादी पार्टी भी जातिगत जनगणना की मांग करती रही है.दक्षिण भारत की कई पार्टियां इस तरह की जनगणना की मांग करती रही हैं. जबकि बिहार सरकार ने भी इसी साल जातिगत सर्वेक्षण की शुरुआत कराई थी, लेकिन यह मामला फ़िलहाल कोर्ट में लंबित है.बिहार में जातिगत सर्वेक्षण कराने का फ़ैसला पिछले साल जून में हुआ था, उस वक़्त भारतीय जनता पार्टी राज्य सरकार में नीतीश कुमार की सहयोगी थी और उसने इस फ़ैसले का समर्थन किया था.
इसी साल 7 जनवरी को बिहार सरकार ने राज्य जातीय सर्वे की प्रक्रिया की शुरुआत की थी. लेकिन एक जनहित याचिका के ज़रिए यह मामला सुप्रीम कोर्ट और फिर पटना हाई कार्ट पहुंच गया. याचिकाकर्ता का कहना था कि बिहार में हो रहा जातीय सर्वेक्षण संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन है क्योंकि इस तरह की जनगणना कराने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है.नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के अलावा बिहार सरकार में शामिल राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अलावा विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ कई दल लंबे समय से जातिगत जनगणना के पक्ष में रहे हैं.
जातिगत जनगणना की बात आते ही अक्सर बहुत सी चिंताएं और सवाल भी उठ खड़े होते हैं. इनमें से एक बड़ी चिंता ये है कि इसके आंकड़ों के आधार पर देशभर में आरक्षण की नई मांग शुरू हो जाएगी.पटना के एएन सिंहा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, “विपक्षी दलों में सबसे पहले यह मांग बिहार में आरजेडी के तेजस्वी यादव ने की थी और इसका विरोध बीजेपी भी नहीं कर पाई.”डीएम दिवाकर के मुताबिक़ इस तरह की जनगणना से वास्तविक आंकड़े सामने आएंगे और इससे उस वर्ग को फ़ायदा होगा जो विपक्ष के बड़े वोटर हैं. इससे विपक्ष को भी चुनावी फ़ायदा होगा.
कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेताओं ने हाल के समय में जातिगत जनगणना के मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया है.जातिगत जनगणना के साथ एक नारा भी लगाया जाता है `जिसकी जितनी संख्या भारी.. उसकी उतनी हिस्सेदारी’.राहुल गांधी ने इसी साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली में पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के विकास के लिए जातिगत जनगणना की मांग की थी और यही नारा लगाया था. राहुल गांधी ने 2011 जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने और पिछड़े वर्ग, दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण देने की मांग भी की थी.दरअसल जातिगत संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग कर विपक्ष दलितों और पिछड़ों के बड़े वोट को अपने पक्ष में लाना चाहता है. इससे बीजेपी के कथित हिन्दू वोट बैंक को भी कमज़ोर किया जा सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा के मुताबिक़, “बीजेपी नहीं चाहती है कि जातिगत जनगणना हो. उनको पता है कि जो पिछड़े हैं उनकी जनसंख्या ज़्यादा होगी. बीजेपी को लगता है कि इससे अगड़ी जाति का उसका वोट बैंक नाराज़ हो जाएगा.”विपक्ष संख्या के आधार पर सरकारी नौकरी में हिस्सेदारी की बात करता है. जबकि दूसरी तरफ यह भी आरोप लगाता है कि सरकार नौकरियों में कटौती कर रही है. ऐसे में उसकी मांग का कितना असर होगा?विनोद शर्मा कहते हैं, “ये सब बातें आपके और हमारे लिए है. पिछड़ों को बर्तन में पानी भरकर चांद दिखाया जा रहा है. बच्चा इस तरह की चांद से खेलते खेलते सो जाता है.”हालांकि इलाहाबाद के गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्रोफ़ेसर बद्री नारायण इस मांग का बहुत ज़्यादा असर नहीं देखते हैं.उनका कहना है, “इस मांग का दबाव भले ही बीजेपी पर पड़े लेकिन चुनावों में यह बहुत असरदार होगा, ऐसा नहीं लगता है. जो लोग हाशिए पर हैं उनका केवल पढ़ा-लिखा तबका ही इस तरह की मांग से ख़ुद जोड़ता है."
बद्री नारायण के मुताबिक़ ग़रीब दलित, पिछड़ों की बड़ी आबादी के लिए रोज़ाना ज़िदगी की ज़रूरतें और रोज़ी-रोटा का सवाल ज़्यादा बड़ा है, इसमें सरकार की योजनाएं अपना काम करेंगीं न कि आरक्षण.हालांकि दिवाकर इसमें विपक्ष की एक बड़ी राजनीति देखते हैं. उनका मानना है कि जातिगत जनगणना कराने से कई तरह के आंकड़े सामने आएंगे, इसलिए केंद्र सरकार जनगणना ही नहीं करा रही है, जो कि साल 2021 में हो जानी थी. डीएम दिवाकर कहते हैं, “सारे विपक्ष को मौक़ा मिला है इसलिए वो गोलबंद होकर इस मुद्दे को उठा रहे हैं. जनगणना कराने से बेरोज़गारी, एनएसएसओ के आंकड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसानों की आत्महत्या, कोविड में हुए जानमाल का नुक़सान, नोटबंदी और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़े असर के वास्तविक आंकड़े भी बाहर आ जाएगें. इसी का डर बीजेपी को है.”
साल 2021 की जनगणना अगर समय पर हो जाती तो इससे मिलने वाले आंकड़े साल 2011-21 के बीच के होते और इसमें ज़्यादातर कार्यकाल मोदी सरकार का ही है.डीएम दिवाकर कहते हैं, “जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी फंस गई है. इससे जो भी नकारात्मक आंकड़े सामने आएंगे उसकी ज़िम्मेवारी बीजेपी की होगी.”डीएम दिवाकर के मुताबिक़ आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत समेत बीजेपी के कई नेता समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा की बात करते हैं.ऐसे में जातिगत जनगणना से जो आंकड़े सामने आएंगे उसका दबाव बीजेपी के ऊपर होगा. विपक्ष इस बात को समझता है और इसलिए उसने जातिगत जनगणना की मांग की है ताकि चुनावों में इसका फ़ायदा उठाया जा सके.
हालांकि बद्री नारायण का मानना है कि विपक्षी दलों को लगता है कि वो जातिगत जनगणना को बड़ा मुद्दा बना लेंगे लेकिन यह आसान नहीं होगा, इसके लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी.बद्री नारायण के मुताबिक़ जातिगत समीकरण को तोड़ने के लिए अब बहुत सारे विकल्प हैं जैसे; ग़रीबों के लिए कल्याणकारी योजनाएं. यानि इस तरह से उनको अपने पक्ष में करना ज़्यादा आसान है.जनगणना का इतिहास भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना कराने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी. अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया.
आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया.तब से लेकर भारत सरकार ने नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया है. लेकिन 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी.इन दलों ने तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया. साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.
मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में लागू किया जा सका. इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए थे. चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए.आख़िरकार साल 2010 में बड़ी संख्या में सांसदों की मांग के बाद सरकार इसके लिए राज़ी हुई थी.जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया था कि 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की उसकी कोई योजना नहीं है.