करणी सेना के करने को बहुत सारा काम होता अगर वो बस पांच सौ बरस पहले अकबर और फिर जहांगीर के ज़माने में होती. उसके पास अकबर के नवरत्नों में से एक आमेर के राजा मान सिंह अव्वल समेत बहुत से राजपूत शहज़ादों और शहज़ादियों के ख़िलाफ़ आंदोलन आरंभ करने का सुनहरा मौका होता. जोधपुर, बीकानेर, जैसेलमेर के राजपरिवारों को मुग़लों से रिश्तेदारी करने से रोकते. लेकिन इतना ज़रूर है कि आज जब न मुगल रहे और न ही मुगलों के साथी या राजपूत दुश्मन, राजपूत ग़ैरत को संजय लीला भंसाली जैसे मराठा पर आज़माना और दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी और सिर की कीमत लगाकर ग़ैरत की पब्लिसिटी करना कितना आसान हो गया है.जब पाकिस्तान में पहली पश्तो फ़िल्म `यूसुफ़ ख़ान शेरबानो` 1969 में रिलीज़ हुई तो पश्तून ग़ैरत को नीलाम करने पर बावेला हो गया. मगर कुछ ही समय के बाद ये हाल हो गया कि एक बरस तो ऐसा भी गुज़रा कि लॉलीवुड (लाहौर का फ़िल्म उद्योग) में पश्तो फ़िल्में पंजाबी और उर्दू फ़िल्मों से भी ज़्यादा बन गईं. साल 1976 में एक बलूच अभिनेता अनवर इक़बाल ने अपनी जेब से पहली बलूच फ़िल्म `हम्माल ओ माहगंज` बनाई. जैसे आज पद्मावती की रिलीज़ से पहले घमासान मचा हुआ है, बिलकुल ऐसा ही `हम्मल ओ माहगंज` की रिलीज़ से पहले हुआ.तब कराची की दीवारों पर जगह-जगह ये लिखा गया कि `बलूची फ़िल्म चलेगा तो सिनेमा जलेगा.`


इस फ़िल्म को कराची में आसिफ़ अली ज़रदारी के पिता हाकिम अली ज़रदारी के सिनेमा हॉली बॉम्बीनो में रिलीज़ होना था. लेकिन ग़ैरतमंद बलूचों ने सिनेमाहॉल का घेराव कर लिया. यूं वो फ़िल्म डिब्बे में बंद होकर रह गई. कोई सुनने को तैयार नहीं था कि फ़िल्म की कहानी पुर्तगाली साम्राज्य के बलूचिस्तान पर आक्रमण के ख़िलाफ़ बलूच सरदार मीर हम्मल की लड़ाई की कहानी है और उसने किसी और से नहीं बल्कि एक बलूच लड़की से ही मोहब्बत की थी. इनमें से तो एक डॉक्युमेंट्री फ़िल्म `जावर` ने तो बहरीन के इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में पहला इनाम भी जीत लिया. इसी साल बहरीन में रहने वाले जान अल-बलूशी ने ज़राब यानी मृगतृष्णा के नाम से पहली बलूची फ़ीचर फ़िल्म बना तो ली है, नई बलूच पीढ़ी ये फ़िल्म देखना भी चाहती है, लेकिन बलूचिस्तान के आज के माहौल में कोई सिनेमाहॉल इसे लगाने के लिए तैयार नहीं है. मुफ़्त की पूछताछ होगी, फ़ायदा क्या. तो फिर ग़ैरतमंद करणी सेना बॉलीवुड के ख़राब माहौल में काम करने वाली राजपूत लड़कियों पर कब रोक लगाने वाली है. ग़ैरत को एक ऐतिहासिक और सियासी मुद्दा बनाने के बाद अगला कदम तो यही होना चाहिए न!

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