वरिष्ठ पत्रकार अनवर चौहान
हमारी ज़िंदगी की चुनिंदा ख़बरों में से एक ये भी है। इसे हम इसलिए भी याद रखते हैं जहां पत्रकारिता में हमने अपनी हार पहली बार मानी थी। एक रोज़ दोपहर मुझे इत्तिला मिली कि कशमीरी गेट बस अड्डे के पास एक पार्क में एक लाश पड़ी है। लाश के पास दो मासूम बच्चे भी हैं। जब में वहां पहुंचा तो नज़ारा बड़ा ही दर्दनांक था। एक बच्चे की उम्र करीब तीन साल और दूसरे की पांच साल लगती थी। दोनों बाप की लाश से सहारा लगाए बैठे मूंगफली खा रहे थे। साथ में एक पोटली मिली। जिसमें बच्चों के दो जोड़ी कपड़े थे। वो दोनों इस बात से अंजान थे कि पिता की मौत हो चुकी है। मृतक की उम्र 30-32 साल लग रही थी। मामले की इत्तिला पुलिस को दी गई। पुलिस ने मृतक के कपड़ों की तलाशी ली। उसकी जेब से ढाई सौ रूपए निकले। लेकिन टिकट वगैरह नहीं मिला। जिससे ये पता चल सकता था कि ये कहां से आया था। उस वक्त न मोबाइल थे और न सोशल मीडिया का ज़माना।
दोनों बच्चों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया गया। छोटे बच्चे का नाम पता नहीं चला। अलबत्ता बड़े का नाम कुन्नू था। बाप का नाम उसने बताया सुदर्शन। लेकिन मां का नाम कोई नहीं बता पाया। बच्चों को ये भी नहीं पता था कि वो कहां के रहने वाले हैं। बड़े बच्चे से जब पूछा कि तुम कहां रहते हो..तो उसने हाथ का इशारा करके सिर्फ इतना ही कहा कि उसका घर दूर है। मां के बारे में जब उससे पूछा तो उसने कहा भाग गया। मृतक की लाश को पोस्टमार्टम के लिए मोर्चरी भेज दिया। और बच्चों को ,,पालना,, संस्थान में भेज दिया गया। जहां अनाथ बच्चों की परवरिश की जाती है। अगले दिन में ,,पालना,, पहुंचा। सारे बच्चे वहां खेल रहे थे। लेकिन ये दोनों बच्चे दीवार के सहारे एक दूसरे का मज़बूती से हाथ थामे बैठे थे। मैं जो कोशिश कर सकता था की। मगर कोई नतीजा नहीं निकला। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गई थी। उसकी मौत बीमारी के कारण हुई थी। मैंने अपने स्तर पर कई राज्यों की पुलिस के मुखियाओं से बातचीत की। मगर मैं उस मृतक की शिनाख्त करवाने में नाकाम रहा। कई दिनों की महनत के बाद भी कोई नतीजा सामने नहीं आया। कुल मिलाकर मैंने हार मान ली।