इंद्र वशिष्ठ
दिल्ली में हुए दंगों ने अपने को श्रेष्ठ कहलाने वाली दिल्ली पुलिस की पोल खोल दी। पुलिस के नाकारा और नाकाम तत्कालीन कमिश्नर अमूल्य पटनायक दंगों के बदनुमा दाग़ लेकर कमिश्नर पद से रिटायर हुए।
दंगें में शहीद हुए दिल्ली पुलिस के हवलदार रतन लाल समेत सभी पचास से ज्यादा बेकसूर लोगों की मौत के लिए गृहमंत्री और पुलिस कमिश्नर ही जिम्मेदार हैं।
पुलिस का काम लोगों के जान माल की सुरक्षा और कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने का है। लेकिन पुलिस अपना यह कर्तव्य पालन करने में बुरी तरह फेल हो गई। पुलिस गृहमंत्री के अधीन है। इसलिए गृहमंत्री भी जिम्मेदार है।
इसके अलावा जिले के डीसीपी,एसएचओ से लेकर बीट में तैनात सिपाही तक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। वसूली के लिए तो गलियों तक की खाक तक छानने वाली पुलिस अगर सतर्क होती तो इतनी बड़ी तादाद में लोगों के एकत्र होने की सूचना पहले ही मिल जाती और उनको जमा होने से रोका जा सकता था।
दंगें कई मायनों में अलग-
यह दंगे दिल्ली में पहले हुए दंगों से कई मायनों में अलग हैं। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दंगे अचानक हुए थे। पुलिस के मूकदर्शक बने रहने से हजारों सिखों का नरसंहार हुआ था। अयोध्या में 1992 में बाबरी ढांचा विध्वंस के बाद भी अचानक दंगे इसी उत्तर पूर्वी दिल्ली के इन्हीं इलाकों में भी हुए थे। उस समय दंगें होने और उनको रोकने में विफल/ देरी के कारण तत्कालीन डीसीपी दीपक मिश्रा को हटाया गया था।
सीएए के विरोध में लंबे समय से शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। लेकिन कुछ नेताओं द्वारा लगातार भड़काने वाले बयान दिए गए। सरकार ने इन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। जिसके परिणामस्वरूप यह दंगे हुए।
सरकार और पुलिस कसूरवार-
दिल्ली में हाल में हुए दंगें अचानक नहीं हुए थे। सरकार और पुलिस के नाकारापन के कारण यह दंगे हुए हैं।
गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा कि दंगे पूर्व नियोजित साजिश के तहत किए गए। गृहमंत्री का सिर्फ यह बयान ही यह साबित करने के लिए काफी है कि सरकार और पुलिस ही दंगों के लिए जिम्मेदार हैं। क्योंकि साजिश थी तो ख़ुफ़िया एजेंसियां साज़िश का पहले ही पता क्यों नहीं लगा पाई।
हालांकि राज्य सभा में कांग्रेस के कपिल सिब्बल ने कहा 25 फरवरी को सरकार की ओर जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि दंगें एकदम यानी स्पान्टेनिअस हुए हैं। लेकिन अब गृहमंत्री कह रहे हैं कि दंगे के पीछे गहरी साज़िश है।
ख़ुफ़िया एजेंसियों की पोल खुल गई-
इन दंगों ने पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र और केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है। लगातार तीन दिनों तक हुए दंगों से गृहमंत्री अमित शाह की काबिलियत पर भी सवाल खड़े हो गए हैं।
देश की राजधानी में तीन दिनों तक दंगे होते रहे और उन पर काबू पाने में पुलिस फेल रही।
पूर्व पुलिस कमिश्नरों ने माना पुलिस बुरी तरह फेल -
दिल्ली में हुए दंगें इस मायने में भी अलग हैं कि पहली बार ऐसे आईपीएस अफसरों ने भी दंगे रोकने में फेल पुलिस की खुल कर मीडिया में आलोचना की जो खुद कभी इसी दिल्ली पुलिस के कमिश्नर रह चुके हैं।
इन पूर्व पुलिस आयुक्तों के बयान इसलिए भी अहम है कि कोई भी आईपीएस अफसर सामान्यतः इस तरह के बयान नहीं देता है। नेताओं के बयान राजनीति से प्रेरित माने जाते हैं। लेकिन पूर्व पुलिस आयुक्तों के बयान से भी बिल्कुल साफ हो गया है पुलिस दंगाइयों पर काबू पाने में बुरी तरह फेल हो गई।
दिल्ली पुलिस के ही कई पूर्व पुलिस आयुक्तों के आलोचना वाले बयानों के बावजूद गृहमंत्री द्वारा संसद में पुलिस की तारीफ करना शर्मनाक है।
ख़ुफ़िया तंत्र पर सवालिया निशान-
केंद्र में भाजपा के पहले शासन काल में दिल्ली पुलिस के आयुक्त रहे अजय राज शर्मा ने कहा हैं कि सीएए के विरोध में धरना प्रदर्शन लंबे समय से चल रहा है। इस आंदोलन के कारण ही हिंसा हुई है। ऐसे में पुलिस को पहले से ऐसे लोगों की पहचान करके उन पर नजर रखना चाहिए थी जो इस आंदोलन को उकसा रहे थे। इससे हिंसा शुरू ही नहीं हो पाती। इस हिंसा ने पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र पर भी सवाल खड़े कर दिए। अगर पहले से ख़ुफ़िया जानकारी होती तो अतिरिक्त पुलिस बल तैनात कर स्थिति को बिगड़ने से बचाया जा सकता था।
अजय राज शर्मा ने कहा, "मैं अगर पुलिस आयुक्त होता तो मैं किसी भी कीमत पर दंगाइयों को कानून हाथ में नहीं लेने देता, चाहे सरकार मेरा ट्रांसफर कर देती या चाहे बर्खास्त कर देती।"
पुलिस की नालायकी -
पूर्व पुलिस आयुक्त नीरज कुमार ने कहा कि हिंसा में इस्तेमाल किए गए हर प्रकार के हथियारों को देखकर ऐसा लगता है कि ये दंगे पूर्व नियोजित थे। शक्तिशाली सुरक्षा उपकरण उपलब्ध होने के बावजूद पुलिस दंगाइयों को रोकने के लिए नहीं आई। "ये पुलिस की नालायकी है।"
उपराज्यपाल और कमिश्नर के एक्शन में देरी-
पूर्व पुलिस आयुक्त टी.आर. कक्कड ने कहा, "मैं हिंसा भड़कने के शुरुआती घंटों में ही सख्त कदम उठाता"। न्यूनतम बल प्रयोग और जवानों की कम संख्या में तैनाती के कारण हिंसा बढ़ गई। बरामद हथियार और पेट्रोल बमों से पता चलता है कि हिंसा पूर्व नियोजित थी। "आयुक्त तथा उप राज्यपाल ने प्रतिक्रिया देर से की।"
दंगों को कंट्रोल करने में ढिलाई बरती-
पूर्व कमिश्नर बृजेश कुमार गुप्ता ने कहा कि सांप्रदायिक दंगों के लिए बकायदा एसओपी है यानी दंगों के हालात में क्या कदम उठाए जाने चाहिए यह तय है। क्योंकि इस तरह के दंगों में से न सिर्फ संपत्ति का नुक़सान होता है बल्कि लोगों की जान जाने का भी खतरा रहता हैं।
दिल्ली में जो कुछ हुआ उससे साफ़ है कि दंगों पर नियंत्रण के लिए पर्याप्त पुलिस बल नहीं भेजा गया। ऐसे मामले में तो पुलिस को सीधे फायरिंग करनी चाहिए थी। अगर पुलिस हवा में भी फायरिंग करती तो दंगाई वहां रुकते नहीं। ऐसे में अगर किसी एक-दो दंगाई को गोली लग भी जाती तो उसे ग़लत नहीं कहा जाता, क्योंकि इससे अन्य लोगों की जान बचाई जा सकती थी।
बी के गुप्ता का कहना है कि दिल्ली में फोर्स की कमी की बात हज्म नहीं होती। इसकी वजह यह है कि दिल्ली पुलिस ही लगभग 81 हजार है और एक घंटे के भीतर ही पांच हजार पुलिसकर्मी बुलाए जा सकते थे। दिल्ली और आसपास के इलाकों में भी हजारों की संख्या में अर्धसैनिक बल उपलब्ध होते हैं। लेकिन फ़ोर्स नहीं बुलाई गई तो इसका अर्थ है कि "दंगों को कंट्रोल करने में ढिलाई बरती गई"।
दिल्ली पुलिस के इन पूर्व आयुक्तों के अलावा अनेक पूर्व आईपीएस ने भी दिल्ली पुलिस के तत्कालीन कमिश्नर अमूल्य पटनायक की भूमिका पर सवालिया निशान लगाए।
वर्दी पर लगाया दाग़ क्षमा योग्य नहीं-
दंगा रोकने में पुलिस की विफलता पर सीमा सुरक्षा बल के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने कहा, " पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक द्वारा वर्दी पर लगाया गया दाग क्षमा योग्य नहीं है। मुझे वास्तव में उनपर तरस आता है।"
पुलिस इंद्र धनुष बन गई-
दंगा स्थलों पर पुलिस के कथित रूप से समय पर नहीं पहुंचने पर उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने कहा, "दिल्ली पुलिस ने इंद्रधनुष की तरह काम किया और बारिश (दंगा) थमने के बाद नजर आई।"
अमूल्य पटनायक के नेतृत्व पर विक्रम सिंह ने चुटकी लेते हुए कहा, "नेपोलियन जब अपनी सेना के साथ चलता था तो वह सबसे आगे चलता था। यहां पटनायक और उनके प्रमुख अधिकारी (घटनास्थल से) गायब थे।
पुलिस शुरू से ही सतर्कता और सख्ती बरतती तो हालात बेकाबू नहीं होते-
इससे पता चलता है कि दंगों की स्थिति का आकलन और नियंत्रण करने में अफसरों द्वारा लापरवाही बरती गई। इसलिए दंगाइयों पर नियंत्रण पाने में देरी हुई।
ख़ुफ़िया तंत्र अगर सही तरह से काम कर होता तो दंगे होने से रोक सकते थे।
संवेदनशील इलाकों में लोगों के बीच क्या सुगबुगाहट चल रही है। इसकी भनक खुफिया तंत्र लगाने में विफल रहा या उसने गंभीरता से कोई कोशिश ही नहीं की।
थानों में बीट में तैनात सिपाही भी अगर सतर्क होते तो पहले ही जानकारी मिल जाती। जिसके आधार पर अतिरिक्त पुलिस बल तैनात करके स्थिति को बिगाड़ने से बचाया जा सकता था।
हल्का लाठी चार्ज और आंसू गैस के गोले दागना, पुलिस ने जाफराबाद से लेकर भजनपुरा तक हुए उपद्रव के दौरान शुरू में यही रवैया अपनाया।
दंगाई पिस्तौल, लाठी-डंडों से लैस होकर चल रहे थे। पत्थर और पेट्रोल बम फेंके जा रहे थे। मकान, दुकान और धार्मिक स्थल को आग लगाई गई। खुलेआम हथियार लहराए जा रहे थे। गोलियां चलाई जा रही थी। लेकिन पुलिस बचाव की मुद्रा में दिखाई दी। क्योंकि पुलिस की तादाद कम थी। इसलिए पुलिस दंगाइयों को पकड़ने की कोशिश करने की बजाए उनको खदेड़ने की कोशिश करती रही।
जाफराबाद में खुलेआम फायरिंग करने और पुलिस वाले पर पिस्तौल तानने वाले शाहरुख को भी पुलिस ने तुरंत मौके पर ही नहीं पकड़ा।
25 फरवरी की शाम को यानी दंगों के तीसरे दिन पुलिस को दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए गए। हिंसाग्रस्त इलाकों में कर्फ्यू लगाया गया।
आईपीएस की काबिलियत पर सवाल-
पुलिस कमिश्नर सिस्टम में पुलिस के पास ही इतने अधिकार है कि उसे दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए किसी से आदेश के लिए इंतजार की जरूरत ही नहीं है। घटनास्थल पर मौजूद पुलिस अफसर खुद ही दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए फैसला ले सकते हैं। इसके बावजूद तीन दिन तक दंगों पर काबू न पाया जाना आईपीएस अधिकारियों की काबिलियत पर सवाल खड़े करता है।
लेकिन इसके बावजूद लापरवाही बरतने के आरोप में किसी भी आईपीएस अफसर या एसएचओ के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई तक नहीं की गई है।
दंगें के कारण डीसीपी दीपक मिश्रा को हटाया गया-
साल 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद सीलमपुर, जाफराबाद और वेलकम इलाके में दंगे हुए थे।
दंगें होना और उन काबू पाने में देरी होना पुलिस अफसरों की पेशेवर काबिलियत पर सवाल खड़े कर देता है।
इसलिए उस समय उत्तर पूर्वी जिले के तत्तकालीन डीसीपी दीपक मिश्रा का तबादला कर दिया गया था।
सत्ता के लठैत आईपीएस-
पुलिस की भूमिका - शांतिपूर्वक धरना, प्रदर्शन और मार्च की इजाजत न देकर पुलिस लोगों के संवैधानिक/ लोकतांत्रिक अधिकार का हनन कर रही है।
सरकार चाहे किसी भी दल की हो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर हमेशा सत्ता के लठैत की तरह ही काम करते हैं।
आईपीएस अफसर महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती के लिए नेताओं के सामने नतमस्तक हो जाते हैं।
कांग्रेस के राज में 2011 में रामलीला मैदान में रात के समय तत्कालीन पुलिस कमिश्नर बृजेश कुमार गुप्ता और आईपीएस धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने सोते हुए महिलाओं और बच्चों पर लाठीचार्ज किया और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिंरगी राज़ को भी पीछे छोड़ दिया। सलवार पहन कर भाग रहे रामदेव को पकड़ा था।
पुलिस की तारीफ कर खुद को बचाया गृहमंत्री ने-
सच्चाई यह है कि पुलिस की तारीफ गृहमंत्री ने पुलिस के लिए नहीं की, अपितु अपने बचाव के लिए की है। पुलिस गृहमंत्री के अधीन है। दंगों के होने और उनको रोकने में पुलिस अफसरों के फेल होने ने गृहमंत्री को फेल साबित कर दिया।
गृहमंत्री अगर पुलिस के फेल होने की बात स्वीकार करते तो वह सीधे तौर पर गृहमंत्री को फेल साबित करता।