पूर्व मेजर केके तिवारी की ज़ुबानी दास्तान 19 अक्तूबर की रात मैंने गोरखाओं के साथ बिताई. मेरा इरादा था कि 20 अक्तूबर की सुबह मैं राजपूतों के पास जाऊँ लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. इसके बाद तो जैसा चीनियों ने चाहा वैसा मुझे करना पड़ा. अगली सुबह मैं राजपूतों के पास गया ज़रूर, लेकिन एक युद्ध बंदी के तौर पर. 20 अक्तूबर की सुबह ज़बरदस्त बमबारी की आवाज सुन कर गहरी नींद से मेरी आँख खुली. मैं बंकर से बाहर आया और किसी तरह गिरते-पड़ते सिग्नल्स के बंकर तक पहुँचा जहाँ मेरी रेजिमेंट के दो सिग्नलमैन मुख्यालय से रेडियो संपर्क बरकरार रखने की कोशिश कर रहे थे. टेलिफ़ोन लाइनें कट गई थीं. लेकिन किसी तरह ब्रिगेड मुख्यालय से रेडियो संपर्क स्थापित हो गया. मैंने उनको ज़बरदस्त गोलाबारी की सूचना दी.थोड़ी देर में गोलाबारी रुक गई और एक गहरा सन्नाटा छा गया. थोड़ी देर बाद पहाड़ की ऊँचाइयों से छोटे हथियारों से रह-रह कर फ़ायरिंग होने लगी और मैंने देखा कि लाल सितारे लगी खाकी वर्दी पहने चीनी सैनिक नीचे उतरते हुए कमर से स्वचालित हथियारों से फ़ायरिंग करते हुए हमारे बंकर की तरफ बढ़ रहे हैं.
तभी मुझे अहसास हुआ कि बटालियन के सभी लोग मुझे और मेरे दो सिग्नल मेन (जो उनके यहाँ मेहमान के तौर पर आए थे) को छोड़ कर कब के पीछे जा चुके थे. मैंने किसी चीनी सैनिक को इतने पास से पहले कभी नहीं देखा था. मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा. चीनियों का पहला जत्था हमें पीछे छोड़ते हुए आगे निकल गया.हम अभी सोच ही रहे थे कि बंकर से बाहर निकलें और ब्रिगेड मुख्यालय की तरफ बढ़ना शुरू करें कि हमें चीनी सैनिकों का दूसरा झुंड नीचे उतरता हुआ दिखाई दिया.वह भी पहले की तरह रह-रह कर फ़ायरिंग कर रहा था. लेकिन यह जत्था काफ़ी व्यवस्थित ढंग से एक एक बंकर की तलाशी लेते हुए आगे बढ़ रहा था. वह बंकरों में ग्रेनेड्स फेंक रहे थे ताकि यह सुनिश्चत कर सकें कि उनमें कोई भारतीय सैनिक ज़िंदा न बच सके.
उस ज़माने में मैं अपने पास 9 एमएम की ब्राउनिंग ऑटोमेटिक पिस्टल रखता था. मेरे ज़हन में ख़्याल आया कि मेरे शव के पास ऐसी पिस्टल नहीं मिलनी चाहिए जिससे एक भी गोली न चलाई गई हो. इसका इस्तेमाल होना चाहिए चाहे हमारी हालत कितनी भी दयनीय क्यों न हो. इसलिए जैसे ही दो चीनी सैनिक हमारे बंकर की तरफ बढ़े. मैंने पिस्टल की पूरी क्लिप उन पर खाली कर दी. पहले चीनी की बांई आँख के ऊपर गोली लगी और वह वहीं गिर गया और नीचे लुढ़कता चला गया. वह मर ही गया होगा क्योंकि न तो वह चिल्लाया और न ही उसने कोई दूसरी आवाज निकाली. दूसरे चीनी के कंधे में गोली लगी और भी नीचे गिर गया. इसके बाद तो जैसे आफ़त आ गई. गोलियां बरसाते और चिल्लाते हुए कई चीनी सैनिक हमारे बंकर की तरफ बढ़ आए. एक सिग्नल मैन तो गोलियों से बुरी तरह छलनी हो गया. मुझे अब भी याद है कि उसके शरीर से इस तरह खून निकल रहा था जैसे किसी नल से दबाव के साथ पानी निकलता है. इसके बाद दो चीनी सैनिक हमारे बंकर में कूदे थे, उन्होंने राइफ़ल की बट से मुझ पर प्रहार किया था और मुझे खींचते और धक्के मारते हुए बंकर से बाहर ले आए थे. मुझे मार्च करते हुए थोड़ी दूर ले जाया गया और मुझसे बैठने के लिए कहा गया.
थोड़ी देर बाद एक चीनी अफ़सर आया जो टूटी फूटी अंग्रेज़ी बोल सकता था. उसने मेरे कंधे पर लगे मेरे रैंक को देख लिया था और वह मुझसे बहुत बेइज़्जती से पेश आ रहा था.मेरे पास ही एक गोरखा सैनिक पड़ा हुआ था जो बेहोश था. कुछ क्षणों के लिए जब उसे होश आया तो उसने मेरी तरफ देखा और शायद मुझे पहचान कर कहा- साब पानी.
मैं कूद कर उसकी मदद करने के लिए आगे बढ़ा, तभी चीनी कैप्टेन ने मुझे मारा और अपनी सीमित अंग्रेज़ी में मुझ पर चिल्लाया- बेवकूफ़ कर्नल. बैठ जाओ. तुम कैदी हो. जब तक मैं तुम से कहूँ नहीं, तुम हिल नहीं सकते. वर्ना मैं तुम्हें गोली मार दूँगा.थोड़ी देर के बाद हमें नामका चू नदी के बगल में एक पतले रास्ते पर मार्च कराया गया.पहले तीन दिनों तक हमें कुछ भी खाने को नहीं दिया गया, फिर पहली बार उबले हुए नमकीन चावलों और सूखी तली हुई मूली का खाना दिया गया.हम 26 अक्तूबर को चेन ये के युद्ध बंदी शिविर में पहुँचे. मुझे पहले दो दिनों तक एक अंधेरे और सीलन भरे कमरे में अकेले रखा गया. इसके बाद कर्नल रिख को मेरे कमरे में लाया गया जो बुरी तरह घायल थे.
शिविर में हमे चार हिस्सों में बांटा गया था. अफसरों और जवानों को अलग अलग रखा गया था. हर समूह की अपनी अलग रसोई थी जहाँ चीनियों द्वारा चुने गए भारतीय सैनिक सबके लिए खाना बनाते थे.नाश्ता सुबह सात से साढ़े सात के बीच मिलता था. दोपहर के खाने का समय था साढ़े दस से ग्यारह बजे तक और रात का खाना तीन से साढ़े तीन बजे के बीच दिया जाता था. जिन घरों में हमें ठहराया गया था, उनकी खिड़कियां और दरवाज़े गायब थे. शायद चीनियों ने उनका इस्तेमाल ईधन के तौर पर कर लिया था. मैं समय बिताने के लिए अपने कमरे में ही चारों तरफ घूमता था. पहली दो रातें तो हम ठंड में ठिठुरते रहे. हमें जब अंदर लाया जा रहा था तो हमने देखा कि वहाँ पर पुआल का ढेर लगा हुआ है. हमने चीनियों से पूछा कि क्या हम इनका इस्तेमाल कर सकते हैं. सौभाग्य से चीनियों ने हमारी यह गुज़ारिश मान ली. इसके बाद तो हमने इस पुआल को गद्दे के तौर पर भी इस्तेमाल किया और कंबल के तौर पर भी. आठ नवंबर को जब चीनियों ने हमें बताया कि तवांग पर उनका कब्ज़ा हो गया है, हम बहुत ही ज्यादा विचलित हो गए. जब तक हमें कुछ भी अंदाज़ा नहीं था कि लड़ाई किस तरफ जा रही है.
उन्होंने कहीं से पता लगा लिया कि मुझे 4 नवंबर 1942 में भारतीय सेना में कमीशन मिला था. इसलिए 4 नवंबर 1962 को एक चीनी अधिकारी, भारतीय सेना में मेरे शामिल होने की बीसवीं वर्षगाँठ मनाने के लिए वाइन की एक छोटी बोतल लेकर मेरे पास आया. भारतीय सैनिकों की भावनाओं पर असर डालने के लिए चीनी खास त्योहारों पर विशेष खाना देते थे और भारतीय फ़िल्में दिखाते थे. हमारे शिविर में एक बहुत ही सुंदर चीनी लेडी डॉक्टर थी जो कभी कभी रिख को देखने आती थी. सच बताऊँ तो हम सब लोगों को उससे प्यार हो गया था. दिसंबर के अंत तक रेड क्रॉस ने भारतीय युद्ध बंदियों के लिए दो पार्सल भेजे. एक पैकेट में गर्म कपड़े थे, जर्मन बैटिल ड्रेस, गर्म बनियान, मफ़लर, टोपी, गर्म कमीज़, जूते और तौलिया. दूसरे पैकेट में खाने का सामान था, साठे चॉकलेट, दूध के टिन्स, जैम, मक्खन, मछलियाँ, चीनी के पैकेट, आटा, दाल, सूखी मटर, नमक, चाय, बिस्किट, सिगरेट और विटामिन की गोलियाँ.
16 नवंबर को पहली बार हमें घर पत्र लिखने की इजाज़त दी गई. हम चार लेफ़्टिनेंट कर्नलों को घर तार भेजने की अनुमति भी दी गई. हमारे पत्र सेंसर होते थे इसलिए हम कोई ऐसी बात नहीं लिख सकते थे जो चीनियों को बुरी लगे. एक पत्र के अंत में मैंने लिखा कि मुझे रेडक्रॉस के जरिए कुछ गर्म कपड़े और खाने की चीजें भेजो. मेरी चार साल की बेटी आभा ने इसका अर्थ यह लगाया और उसने अपनी माँ से कहा भी कि लगता है डैडी को ठंड लग रही है और वह भूखे भी हैं. चीनी अक्सर पब्लिक ऐड्रेस सिस्टम पर भारतीय संगीत बजाते थे. एक गाना बार-बार बजाया जाता था और वह था लता मंगेशकर का गीत, आ जा रे मैं तो कब से खड़ी इस पार... यह गाना सुन कर हमें घर की बुरी तरह से याद आने लगती थी. हमें उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब एक दिन एक चीनी महिला ने आ कर हमें बहादुर शाह ज़फ़र की कुछ ग़ज़लें सुनाईं. हमारे साथी रतन और इस महिला ने एक दूसरे को ज़फ़र के लिखे शेर सुनाए जो उन्होंने दिल्ली से निकाले जाने के बाद रंगून में लिखे थे. शायद यह उर्दू बोलने वाली महिला लखनऊ में कई सालों तक रही होगी.
हमने इस दौरान चीन के सुइयों से किए जाने वाले इलाज का कमाल भी देखा. हमारे दोस्त रिख की माइग्रेन की समस्या हमेशा के लिए जाती रही. इसमें उस खुबसूरत लेडी डॉक्टर की भूमिका थी या सुइयों की, आप अंदाज़ा लगा सकते हैं. चीनियों ने तय किया कि भारत भेजने से पहले हमें चीन का दर्शन कराया जाए. वुहान में 10 और भारतीय अफसर युद्धबंदी हमसे आ कर मिल गए. इनमें मेजर धन सिंह थापा भी थे जिन्हें वीरता के लिए परमवीर चक्र दिया गया था. यहाँ पर पहली बार हमें आज़ादी से रेडियो सुनने की अनुमति दी गई. और हमने चीन में रहते हुए पहली बार ऑल इंडिया रेडियो और बीबीसी को सुना.चीन में घूमने के दौरान एक बेहतरीन कपड़े पहने हुए चीनी पूरे समय तक हमारे साथ रहा. हम उसको जनरल कह कर पुकारते थे.उनके पीछे हमेशा एक दूसरा चीनी चलता था जो उसके लिए कुर्सी खींचता था और चाय बनाता था. हम उसे जनरल का अर्दली कहा करते थे.
जब हमें भारत वापस भेजने का समारोह हो रहा था, तो चीन की तरफ से काग़जों पर दस्तखत करने वाला व्यक्ति वह `अर्दली` था और दस्तखत करने के उसे कलम पकड़ा रहा व्यक्ति `जनरल` था.  सुबह 9 बजे हमने कुनमिंग से कलकत्ता के लिए उड़ान भरी. दोपहर 1 बज कर बीस मिनट पर हम वहाँ लैंड करने वाले थे. लेकिन हमारा जहाज बहुत देर तक ऊपर ही चक्कर लगाता रहा. विमान चालक ने घोषणा की कि विमान के पहिए नहीं खुल पा रहे हैं और हो सकता है कि हमें क्रैश लैंड करना पड़े. अंतत: हम दो बज कर तीस मिनट पर दमदम हवाई अड्डे पर उतरे. किसा भी स्थिति से निपटने के लिए वहाँ दमकलों की पूरी कतार खड़ी थी. जब विमान हवा में था तो हम सोच रहे थे कि इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि चीन की इतनी मुसीबतों से बचने के बाद हम भारत में क्रैश लैंड करते हुए मरने जा रहे थे!