इंद्र वशिष्ठ (वरिष्ठ पत्रकार)
मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में पत्रकारिता का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह खुद समाज में होने वाले ग़लत काम और ग़लत व्यक्ति /ढोंगी की करतूतों का पर्दाफाश करेगा। जैसे सिरसा में पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने बलात्कारी राम रहीम का पर्दाफाश किया था। लेकिन आजकल मीडिया पोस्टमार्टम की पत्रकारिता कर पत्रकार होने का ढोंग करता है। पहले शेर का शिकार करने के बाद शिकारी उसके साथ फोटो खिंचवाता था इसी तरह तरह मीडिया को भी किसी का पर्दाफाश करने पर श्रेय मिलता था। आज़ हालत यह कि अपराधी जब खुद अपने कुकर्मों के कारण कोर्ट के चंगुल में फंस कर जेल पहुंच जाता है तो मीडिया के मदारी “ बहादुरों ” की टीम मरे मराए शिकार में तीर मार- मार कर अपनी बहादुरी का बेशर्मी से बखान करने की होड शुरू करती है। जैसे राम रहीम के जेल जाने के बाद मीडिया कर रहा है। राम रहीम के बारे में पहले चुप रहने वाला मीडिया अब भी इस तरह खबर दिखा रहा है जैसे वह बहुत जोखिम का काम का कर रहा है।
सबसे पहले के चक्कर में घनचक्कर, ख़बर रफूचक्कर ---राम रहीम को जिस दिन सजा सुनाई गई उस दिन दोपहर से ही सभी चैनल दस साल सजा की खबर सबसे पहले दिखाने का दावा करते रहे। मैं उस शाम सीबीआई मुख्यालय में था सीबीआई प्रवक्ता ने शाम को इस मामले से संबंधित अपने अफसर से सूचना लेने के बाद ही वहां मौजूद 8-10 पत्रकारों को बताया कि बलात्कार के दो मामलों में दस-दस साल यानी कुल बीस साल की सजा हुई है और एक सज़ा पूरी होने पर दूसरी सज़ा शुरू होगी। तब वहां मौजूद पत्रकारों (एबीपी समेत) ने अपने चैनलों में खबर सही करवाई। अब दोपहर से ही गलत खबर दिखाने वाले चैनल वालों से कोई पूछे कि जब कोर्ट से काफी दूर ही पत्रकारों को रोक दिया गया था। कोर्ट की कार्यवाही शाम तक चली। कोर्ट की कार्यवाही खत्म होने से पहले कोई भी बता ही नहीं सकता कि सजा क्या दी गई। तो ये दोपहर से ही ग़लत ख़बर दिखा कर लोगों को गुमराह क्यों कर रहे थे। रोहतक में मौजूद पत्रकरों को राम रहीम के वकील ने भी शाम को कोर्ट से बाहर निकलने के बाद अधूरी जानकारी दी। ऐसे में कोर्ट या सीबीआई से आधिकारिक सूचना मिलने पर ही सही खबर देनी चाहिए थी या अंतर्यामी बन कर कोर्ट के अंदर की गतिविधियों की झूठी खबर देना पत्रकारिता है। बेशर्मी की हद है कि कई चैनल अब भी यह श्रेय ले रहे है कि उन्होंने सबसे पहले दोपहर में साढे तीन बजे ही यह खबर दी कि राम रहीम को दस साल की सजा हो गई।
कौवे के पीछे भागते मदारी---न्यूज चैनल की हालत ऐसी हो गई कि अगर कोई इनको कह दे कि कौवा तुम्हारा कान ले गया तो ये पहले अपना कान देखने की बजाय कौवे के पीछे शोर मचाते हुए भागना शुरू कर देंगे।
न्यूज चैनल माध्यम अच्छा, मदारी गड़बड़-- अफसोस होता है कि न्यूज़ चैनल बहुत अच्छा कार्य कर सकते हैं लेकिन सबसे पहले दिखाने के चक्कर में घनचक्कर बन गलत और आधी अधूरी ख़बर दिखा देते हैं। इसलिए लिए मीडिया पर आम लोगों का भरोसा खत्म हो जा रहा है। न्यूज़ चैनलों की मिट्टी पलीद इनके एंकरों ने भी कराई हैं। एंकर मदारी और पटरी बाजार के दुकानदारों की तरह चीख चीख कर ख़बर बेचते लगते हैं। ऐसे भी एंकर हैं जो बम धमाका होते ही तुरंत बेचारे रिपोर्टर से यह भी पूछने लगते हैं कि बताईए धमाके में कौन सा विस्फोटक इस्तेमाल किया गया है। अब इन एंकर से कोई पूछे कि घटनास्थल पर जांच के लिए विस्फोटक विशेषज्ञ भी अभी पहुंचे नहीं। ऐसे में रिपोर्टर क्या उन विशेषज्ञ से भी ज़्यादा ज्ञानी या अंतर्यामी है जो तुरंत बता देगा कि कौन सा विस्फोटक इस्तेमाल किया गया। ऐसे एंकर अपना दिमागी दिवालियापन दिखाते है।
एंकर डाकिया या स्वयंभू जज --अपराध की जो खबर क्राइम रिपोर्टर बेहतर कवर कर सकता है उसमें भी संपादक स्तर के एंकर कूद जाते हैं। बम धमाका या कोई बड़ी वारदात हो उस समय ज्यादा लोग समाचार देखते हैं इसलिए लगता है संपादक स्तर के लोग अपनी सूरत दुनिया को दिखाने के लिए घटना स्थल पर पहुंच जाते हैं। ऐसे एंकर संपादकों की भूमिका ज्यादातर डाकिया या स्वयंभू जज की ही नजर आती है। क्राइम के मामले में बेतुका ज्ञान बांटते हुए यह तक भूल जाते हैं कि पुलिस किसी को भी सबूतों के आधार पर गिरफ्तार करेगी तुम्हारे कुतर्क पर नहीं और कोर्ट भी सबूतों और गवाहों के आधार पर सज़ा देगा तुम्हारे चीखने चिल्लाने पर नहीं। चैनल में एक चीज और हास्यास्पद होती है ज्यादातर रिपोर्टर एक साथ मिलकर कोई खबर करते हैं लेकिन सब अपने चैनलों पर श्रेय इस तरह लेते हैं जैसे यह उनकी ही एक्सक्लूसिव है। ताज़ा उदाहरण बलात्कारी राम रहीम के बारे में चैनलों पर दिखाई जा रही ख़बरें है।
क्राइम रिपोर्टिंग गंभीर और जिम्मेदारी वाला कार्य है -- लेकिन न्यूज चैनलों के आने के बाद से इसमें काफी गिरावट आ गई है। सबसे पहले दिखाने की अंधी दौड़ में गलत खबरें तक दे दी जाती है। बिना यह समझे कि गलत खबर से किसी पर क्या बीतेगी। कुछ साल पहले लाइव इंडिया चैनल के सुधीर चौधरी ने वेश्यावृत्ति का फर्जी स्टिंग दिखा कर स्कूल टीचर उमा खुराना को बदनाम कर दिया था। पुलिस ने भी दंगा भड़कने की आशंका में बिना तफतीश किए तुरन्त उमा को जेल में डाल दिया। बाद में तहकीकात में पुलिस ने पाया कि उमा बेकसूर है और उसके बारे में दिखाई खबर फर्जी है।
कुछ साल पहले की बात है एक सुबह न्यूज चैनलों ने खबर दी कि नोएडा में स्कूल बस दुर्घटना में पांच बच्चों की मौत हो गई। जबकि उस दुर्घटना में किसी की मौत नहीं हुई थी। ऐसी खबर से उस बस में सवार बच्चों के मां-बाप पर क्या बीती होगी अंदाजा लगाया जा सकता है। एक अन्य मामले में तो सनसनीखेज खबर दिखाने के चक्कर ने दिल्ली में एक युवक की जान ले ली। खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने वाले एक चैनल ने खबर चला दी कि इस युवक ने अपनी रिश्तेदार लड़की से बलात्कार किया है। इस खबर के कारण शादीशुदा इस युवक ने आत्महत्या कर ली। गैर जिम्मेदाराना और संवेदनहीन क्राइम रिपोर्टिंग के ये तो कुछ उदाहरण है। इसके अलावा भी यह देखा गया है कि सबसे पहले दिखाने की होड़ में गलत या एकतरफा खबर दिखा दी जाती हैं। पुलिस के दावे को ही प्रमुखता दी जाती है चाहे बाद में वह दावा कोर्ट में खोखला कयों न निकलें।
दागी संपादक--आपराधिक मामलों के आरोपी ही जब न्यूज़ चैनल के संपादक बन बैठे है तो क्राइम रिपोर्टिंग का स्तर तो गिरेगा ही। जी न्यूज़ के सुधीर चौधरी और उसके मालिक लाला सुभाष चन्द्र गोयल के खिलाफ तो 100 करोड़ की जबरन वसूली के आरोप में दिल्ली पुलिस ने केस दर्ज किया हुआ है। सुधीर इस मामले में जेल भी जा चुका है।यह वहीं सुधीर चौधरी हैं जिसने लाइव इंडिया चैनल में वेश्यावृत्ति का फर्जी स्टिंग दिखा कर स्कूल टीचर उमा खुराना को बदनाम कर दिया था। सुभाष चन्द्र गोयल की किताब का विमोचन प्रधानमंत्री निवास में मोदी द्वारा करने और सुधीर चौधरी को पुलिस सुरक्षा देने से मोदी की भूमिका पर भी सवालिया निशान लग जाता है। एनडीटीवी के प्रणय रॉय के खिलाफ तो सीबीआई ने धोखाधड़ी और साजिश का मामला दर्ज किया है। दीपक चौरसिया के खिलाफ तो दिल्ली छावनी थाने में फौजियों से भी मारपीट का मामला दर्ज हो चुका है। मदारी की तरह चीख चीख कर पत्रकारिता का तमाशा सिर्फ भारत में हो रहा है। विदेशों में बम धमाकों / आतंकवादी हमलों के समय क्या कभी बीबीसी ,सीएनएन आदि न्यूज चैनलों पर पत्रकारों को मदारी की तरह चीखते हुए देखा है।
गुरूग्राम के रायन पब्लिक स्कूल में बच्चे की हत्या के बाद लोगों ने शराब के ठेके को आग लगा दी। क्या किसी की दुकान , संपत्ति को नुकसान पहुंचाना गुंड़ागर्दी नहीं है ? आगजनी करने पर उतारू भीड़ पर लाठीचार्ज करना क्या गलत है? लेकिन न्यूज चैनलों ने आगजनी करने वालों की आलोचना करने की बजाय लाठीचार्ज को प्रमुखता से दिखाया।अंध विश्वास और डर फैलाते हैं—साल 2001 में काला बंदर के मामले में आजतक चैनल ने तो हद ही कर दी थी अपनी कल्पना से मंकी मैन का चित्र ही बना कर दिखा दिया।