गौरी लंकेश अकेली पत्रकार नहीं हैं जिसकी हत्या हुई है। मामला ताज़ा है इस लिए अभी मीडिया में सुरखियों में हैं। जैसी वक्त आगे बढेगा मीडिया भी इसे ठंडे बस्ते में डाल देगा। गौरी लंकेश की हत्या पर शोक उनके जीवन और काम का सम्मान नहीं होगा. अफ़सोस अगर किया जाना चाहिए तो इसका कि एक भारतीय भाषा कल के मुकाबले आज अधिक गरीब हो गई है क्योंकि वह एक साहसी आवाज़ को सुरक्षित न रख पाई कि वह उससे जितना समृद्ध हो सकती थी, उससे बहुत बहुत कम में ही उसे अब संतोष करना पड़ेगा. कन्नड़ भाषा की `लंकेश पत्रिका` की सम्पादक और लेखक गौरी लंकेश की मंगलवार रात उनके घर पर ही गोली मार कर हत्या कर दी गई.

किसी ने इस हत्या के बारे में लिखा, सनसनीख़ेज़ हत्या. सनसनी अब ऐसी हत्याओं से नहीं होती, क्योंकि हम ऐसी हत्याओं का इंतज़ार कर रहे होते हैं. गौरी लंकेश का हर एक दिन ही सनसनी था. एक ख़बर. मौत जो कल क़त्ल की शक्ल में आई एक लंबी प्रतीक्षा थी. आश्चर्य है कि वो अब तक बची रहीं गौरी लंकेश की बिरादरी के ही एक सदस्य को उनके एक परिचित ने मुस्कराते हुए आत्मीयता से कहा, "अरे आपसे यों भेंट हुई! हमने तो आपका शोक सन्देश लिख रखा है." गौरी लंकेश का अब तक बचे रहना उस भाषा में जिसके पारखी कलबुर्गी को मार डाला गया हो, एक आश्चर्य था. भारतीय भाषा में हर उस किसी का जीवित बचा रहना जो नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे और एमएम कलबुर्गी की जमात का है, हैरानी की बात है. या, उसका हरेक दिन खुद से यह पूछते जाना है कि क्या मेरी बातों का कोई असर नहीं?

पुलिस का कहना है कि वह हत्यारों का पता नहीं कर पाई है. किसी ने उन्हें देखा नहीं. गौरी लंकेश के घर में घुसकर उनपर सात गोलियाँ दागकर वे चलते बने. अँधेरे में कहीं छिप गए. `कर्नाटक दूसरा गुजरात बनने की राह पर` हत्यारे हमारे बीच हैं. जैसे गोविन्द पानसरे के, नरेंद्र दाभोलकर के, एमएम कलबुर्गी के. हम हत्यारों को तुरंत पकड़ने और सख्त सज़ा की मांग कर रहे हैं. लेकिन जब भाषाएँ हत्या की संस्कृति का उत्सव मनाने लगें, जब जन संहारों के अध्यक्षों को समाज अपना अभिभावक चुन ले तो गौरी का मारा जाना सिर्फ़ वक्त की बात है. जिसने गौरी को मारा, दरअसल उसने सिर्फ एक संस्कृति की ओर से गोली चलाई है. गौरी लंकेश कन्नड़ में लिख रही थीं. अपने लोगों को सावधान कर रही थीं कि कर्नाटक दूसरा गुजरात बनने की राह पर है.

यह चेतावनी वे नहीं दे सकते थे जो कर्नाटक की राजधानी को सूचना प्रौद्योगिकी की राजधानी बना रहे हैं. उनकी भाषा कन्नड़ नहीं है हालांकि वे सकल राष्ट्रीय उत्पाद में बढ़ोत्तरी कर रहे हैं. गौरी इस प्रगति की यात्रा में विचलन पैदा कर रही थीं. वे राष्ट्र की प्रगति के लिए जो अनिवार्य है, वह नहीं कर रही थीं. वे गैर ज़रूरी काम कर रही थीं. समाज में नकारात्मकता फैला रही थीं. वे समाज को कह रही थीं कि जिसे वह स्वास्थ्य समझ रहा है, वह दरअसल एक सूजन का शिकार शरीर है.गौरी चेतावनी दे रही थीं कि भारतीय समाज को नाइंसाफ़ियों और हत्याओं की आदत पड़ती जा रही है और उसकी आत्मा बीमार हो गई है. गौरी बोल रही थीं मुसलमानों की ओर से, भारत से भी खदेड़े जा रहे बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों की ओर से, नक्सल कहे जानेवालों को भी आम भारतीय की ज़िंदगी की इज्जत मिले, इस पक्ष से. गौरी उस कन्हैया को अपना बेटा कह रही थीं जिसके खून का प्यासा हर सच्चा राष्ट्रवादी है. अभी हाल में एक मित्र ने कहा कि सफ़र के दौरान कन्हैया का ज़िक्र निकल आया तो बगल के यात्री ने रिवाल्वर निकाल ली.

अपने बारे में बुरी ख़बर सुनने पर समाज का गौरी लंकेश से नाराज़ हो जाना स्वाभाविक है. उसका हाथ पिस्तौल पर चला जाए तो क्या ताज्जुब! गौरी कम बोल सकती थीं, कुछ देर चुप रह सकती थीं, लिखना ही था तो पर्यावरण पर लेख सकती थीं. ऐसा वे करतीं तो कुछ और दिन जीवित रह सकती थीं.गौरी को ही अपना ख़्याल रखना था. वह उन्होंने नहीं किया. जोख़िम की ज़िंदगी उनकी चुनी हुई थी. हत्यारों को वे उकसावा दे रही थीं. जैसे एहसान जाफ़री ने दिया.


`बेहतर किया तो हाल बेहतर हैं, दंगे कराए थे तो दंगे हो गए` गौरी लंकेश की मौत पर हिंदी को भी सोचना होगा. इसपर कि क्यों उसकी पत्रकारिता में गौरी लंकेश को जगह नहीं मिल सकती. भारतीयता के पैरोकारों को सोचना होगा कि क्यों भारतीय भाषाएँ पानसरे, दाभोलकर, कलबुर्गी और लंकेश की हिफ़ाज़त नहीं कर सकतीं! गौरी के एक मित्र ने बताया कि हाल में उन्होंने सावधान रहने को कहा था गौरी से और गौरी ने इस सलाह को झटक दिया था,
 "अगर हम नहीं बोले तो कौन बोलेगा?" कुछ ठसक भी थी इसमें. हम जो भाषा जानते हैं कैसे चुप रहें? और अगर वक्त पर नहीं बोले तो क्या विश्लेषक की तरह शब्दों के ठंडा होने का इन्तज़ार करें? गौरी शब्दों को कायरता से सर्द होने से बचा रही थीं. भाषा की आँच ज़िंदा रख रही थीं.

लेकिन ध्यान रहे गौरी ख़ुद नहीं जलीं उस आग में जो वे जुगा रही थीं. यह याद रखना अभी भी ज़रूरी होगा कि वे मरना नहीं चाहती थीं. बोलते रहना चाहती थीं और उन्हें ठप कर दिया गया. इसे याद रखना बहुत ज़रूरी है.