केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए भारी फ़ेरबदल से एक बार फिर साबित हो गया कि इस सरकार को ढाई लोग चलाते हैं।  दरअसल मौजूदा सरकार में केवल नरेंद्र मोदी और अमित शाह की चलती है. नरेंद्र मोदी इसके अलावा ये संदेश देने में भी सफ़ल रहे हैं कि वो बड़े फ़ैसले ले सकते हैं और उसे लागू कर सकते हैं. इसका एक उदाहरण है निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्री बनाना. इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं, तब उनके पास कुछ समय तक रक्षा मंत्रालय का प्रभार रहा था, लेकिन पहली बार किसी महिला को इतना बड़ा मंत्रालय मिला है, कैबिनेट बदलाव की ये सबसे बड़ी बात रही है.

इसके अलावा मंत्रालय में कई ऐसे चेहरों को राज्य मंत्री के तौर पर शामिल किया गया है, जिनका राजनीतिक अनुभव ज़्यादा नहीं है. हरदीप सिंह पुरी हों, आरके सिंह हों या फिर अल्फोंज हों, ये सब प्रशासनिक अनुभव वाले हैं और इन सबको स्वतंत्र प्रभार दिया गया है, वो भी बेहद महत्वपूर्ण मंत्रालयों में. इससे ज़ाहिर होता है कि प्रधानमंत्री का भरोसा नौकरशाही से आए लोगों पर ज़्यादा है.हालांकि लोकसभा और राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के इतने लोग हैं, लेकिन इन लोगों को ध्यान नहीं रखा गया है.

मौजूदा लोकसभा में करीब 60 फ़ीसदी सांसद युवा हैं, लेकिन इन लोगों पर प्रधानमंत्री ने भरोसा नहीं जताया है, पार्टी के बाहर से लोग मंत्रिमंडल में लाए गए हैं. बदलाव से ये भी साफ़ होता है कि मंत्रिमंडल पर प्रधानमंत्री कार्यालय का पूरा वर्चस्व है. पहले कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय के लोगों ने अपना मंत्रालय बदलने के प्रति इच्छुक नहीं दिखे. कहा जा रहा था कि नितिन गडकरी को रक्षा मंत्री बनाया जाना था, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया, ये केवल अटकलबाज़ी हो सकती है. प्रधानमंत्री ने उन मंत्रालयों में अपने भरोसे के आदमी को रखा है जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि मंत्रालय पर प्रधानमंत्री कार्यालय की निगरानी है. रक्षा मंत्रालय को काफ़ी हद तक प्रधानमंत्री कार्यालय ही कंट्रोल करता है, ये पिछले तीन साल में ये कई बार कहा गया है.
केंद्रीय मंत्रिमंडल में रविवार को हुए फ़ेरबदल ने एक बार फिर से साबित किया है कि मौजूदा सरकार में केवल नरेंद्र मोदी और अमित शाह की चलती है.

नरेंद्र मोदी इसके अलावा ये संदेश देने में भी सफ़ल रहे हैं कि वो बड़े फ़ैसले ले सकते हैं और उसे लागू कर सकते हैं.इसका एक उदाहरण है निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्री बनाना. इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं, तब उनके पास कुछ समय तक रक्षा मंत्रालय का प्रभार रहा था, लेकिन पहली बार किसी महिला को इतना बड़ा मंत्रालय मिला है, कैबिनेट बदलाव की ये सबसे बड़ी बात रही है. इसके अलावा मंत्रालय में कई ऐसे चेहरों को राज्य मंत्री के तौर पर शामिल किया गया है, जिनका राजनीतिक अनुभव ज़्यादा नहीं है. हरदीप सिंह पुरी हों, आरके सिंह हों या फिर अल्फोंज हों, ये सब प्रशासनिक अनुभव वाले हैं और इन सबको स्वतंत्र प्रभार दिया गया है, वो भी बेहद महत्वपूर्ण मंत्रालयों में. इससे ज़ाहिर होता है कि प्रधानमंत्री का भरोसा नौकरशाही से आए लोगों पर ज़्यादा है. हालांकि लोकसभा और राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के इतने लोग हैं, लेकिन इन लोगों को ध्यान नहीं रखा गया है. मौजूदा लोकसभा में करीब 60 फ़ीसदी सांसद युवा हैं, लेकिन इन लोगों पर प्रधानमंत्री ने भरोसा नहीं जताया है, पार्टी के बाहर से लोग मंत्रिमंडल में लाए गए हैं.


बदलाव से ये भी साफ़ होता है कि मंत्रिमंडल पर प्रधानमंत्री कार्यालय का पूरा वर्चस्व है. पहले कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय के लोगों ने अपना मंत्रालय बदलने के प्रति इच्छुक नहीं दिखे. कहा जा रहा था कि नितिन गडकरी को रक्षा मंत्री बनाया जाना था, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया, ये केवल अटकलबाज़ी हो सकती है. प्रधानमंत्री ने उन मंत्रालयों में अपने भरोसे के आदमी को रखा है जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि मंत्रालय पर प्रधानमंत्री कार्यालय की निगरानी है. रक्षा मंत्रालय को काफ़ी हद तक प्रधानमंत्री कार्यालय ही कंट्रोल करता है, ये पिछले तीन साल में ये कई बार कहा गया है. नौकरशाहों को मंत्रीपद, क्या मोदी के नेता योग्य नहीं?एक बात और है कि भारतीय जनता पार्टी के अंदर ना तो राजनाथ सिंह और ना ही नितिन गडकरी की स्थिति ऐसी है वो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को चुनौती दे पाएं. क्योंकि पूरे बदलाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की छाप पर नज़र आती है.

आख़िरी मौके तक अमित शाह- नरेंद्र मोदी ने इस कैबिनेट बदलाव की जानकारी को लीक नहीं होने दिया.इस बदलाव में भारतीय जनता पार्टी के भविष्य की राजनीति और स्थानीय समीकरणों का ध्यान रखने की कोशिश भी नज़र आती है. मीडिया को भी आख़िरी वक्त तक ठीक से मालूम नहीं हो पाया कि इस बदलाव में क्या क्या होने जा रहा है. मीडिया में ये कहा गया कि प्रदर्शन के आधार पर लोगों को मंत्रालय से हटाया जा रहा है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है. कामकाज के आधार पर ये लग रहा था कि कृषि मंत्रालय में बदलाव होगा, लेकिन उस विभाग में कोई बदलाव नहीं हुआ है. दरअसल, ये बदलाव एक बार फिर यही बताते हैं कि प्रधानमंत्री का भरोसा किन लोगों पर है. वे कुछ लोगों पर भरोसा करते हैं.इन लोगों में अरुण जेटली, पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान और स्मृति ईरानी हैं, इन लोगों को अहम ज़िम्मेदारी मिली है. इसके अलावा उन्हें नौकरशाहों पर बहुत ज़्यादा भरोसा है.मुझे लगता है कि ये सरकार दो लोगों के द्वारा चलाई जा रही है, ज़्यादा से ज़्यादा से ढाई लोग कह सकते हैं.

एक तो ख़ुद प्रधानमंत्री हैं, दूसरे अमित शाह और ढाई वाली भूमिका में अजीत डोभाल आते हैं. ये ढाई लोग मिलकर ही सरकार चला रहे हैं. इस बदलाव ने ये भी बताया है कि मोदी और अमित शाह की नज़रों में सरकार चलाने वाले और चुनाव जीतने वाले लोगों को अलग अलग करके देखते हैं. जो नेता कई चुनाव जीत चुके हैं, जनाधार वाले हैं तो ज़रूरी नहीं है कि उन्हें मंत्री पद मिले ही. राजस्थान से आए शेखावत, कर्नाटक से आने वाले अनंत हेगड़े और बिहार से आने वाले अश्विनी चौबे जैसे लोग संघ से जुड़े रहे हैं. लेकिन इससे ये नहीं कहा जा सकता है कि पूरे बदलाव पर संघ का स्टैंप लगा हुआ है. इस बदलाव को लेकर मोदी ने संघ प्रमुख से बात की होगी, सलाह मशविरा हुआ होगा, लेकिन अंतिम फ़ैसला वो ख़ुद लेते होंगे.

ऐसी स्थिति भी है कि मोदी जो कहेंगे, उसे संघ प्रमुख सुनते होंगे. एक और अहम बात ये रही कि इसमें किसी सहयोगी दल को शामिल नहीं किया गया. इसका संदेश साफ़ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सहयोगियों की नहीं सुनने वाले हैं. वो वही करेंगे जो उनके अपने एजेंडे के मुताबिक होगा. कल तक वे जिन नीतीश कुमार को अपना क़रीबी सहयोगी बता रहे थे, उनकी पार्टी को उन्होंने मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं दी. यही हाल पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल का भी है. इन सहयोगी दलों की चाहत भी बस सत्ता में हिस्सेदारी पाने की है

लिहाजा एनडीए के भविष्य को लेकर ख़तरे की कोई बात नहीं है, क्योंकि एनडीए भी केवल एक आदमी पर चल रहा है, और वो शख़्स नरेंद्र मोदी हैं. हालांकि इस बदलाव के बाद नरेंद्र मोदी के सामने चुनौती बढ़ गई है कि वे अपने फ्लैगशिप योजनाओं को किस तरह से पूरा करते हैं. क्योंकि 2019 के चुनाव में लोग सवाल तो पूछेंगे. मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया हो, नमामि गंगे हो, इन सबके बारे में सवाल पूछेंगे. इन पर ध्यान देना होगा. ये भी देखना होगा कि क्या लोगों को रोजगार मिल पाएगा, क्या अर्थव्यवस्था की विकास दर एक बार फिर से सात-आठ फ़ीसदी तक पहुंच पाएगी, अब ये चुनौती मोदी और उनकी सरकार के सामने होगी. कैबिनेट बदलाव---एक बात और है कि भारतीय जनता पार्टी के अंदर ना तो राजनाथ सिंह और ना ही नितिन गडकरी की स्थिति ऐसी है वो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को चुनौती दे पाएं. क्योंकि पूरे बदलाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की छाप पर नज़र आती है.



आख़िरी मौके तक अमित शाह- नरेंद्र मोदी ने इस कैबिनेट बदलाव की जानकारी को लीक नहीं होने दिया. इस बदलाव में भारतीय जनता पार्टी के भविष्य की राजनीति और स्थानीय समीकरणों का ध्यान रखने की कोशिश भी नज़र आती है. लेकिन पहले जिस स्तर का ये बदलाव बताया जा रहा था, उससे बड़ा बदलाव हुआ. मीडिया को भी आख़िरी वक्त तक ठीक से मालूम नहीं हो पाया कि इस बदलाव में क्या क्या होने जा रहा है.मीडिया में ये कहा गया कि प्रदर्शन के आधार पर लोगों को मंत्रालय से हटाया जा रहा है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है. कामकाज के आधार पर ये लग रहा था कि कृषि मंत्रालय में बदलाव होगा, लेकिन उस विभाग में कोई बदलाव नहीं हुआ है. दरअसल, ये बदलाव एक बार फिर यही बताते हैं कि प्रधानमंत्री का भरोसा किन लोगों पर है. वे कुछ लोगों पर भरोसा करते हैं. इन लोगों में अरुण जेटली, पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान और स्मृति ईरानी हैं, इन लोगों को अहम ज़िम्मेदारी मिली है. इसके अलावा उन्हें नौकरशाहों पर बहुत ज़्यादा भरोसा है.

सूत्रों के मुताबिक ये सरकार दो लोगों के द्वारा चलाई जा रही है, ज़्यादा से ज़्यादा ढाई लोग कह सकते हैं. एक तो ख़ुद प्रधानमंत्री हैं, दूसरे अमित शाह और ढाई वाली भूमिका में अजीत डोभाल आते हैं. ये ढाई लोग मिलकर ही सरकार चला रहे हैं. इस बदलाव ने ये भी बताया है कि मोदी और अमित शाह की नज़रों में सरकार चलाने वाले और चुनाव जीतने वाले लोगों को अलग अलग करके देखते हैं. जो नेता कई चुनाव जीत चुके हैं, जनाधार वाले हैं तो ज़रूरी नहीं है कि उन्हें मंत्री पद मिले ही. राजस्थान से आए शेखावत, कर्नाटक से आने वाले अनंत हेगड़े और बिहार से आने वाले अश्विनी चौबे जैसे लोग संघ से जुड़े रहे हैं. लेकिन इससे ये नहीं कहा जा सकता है कि पूरे बदलाव पर संघ का स्टैंप लगा हुआ है.इस बदलाव को लेकर मोदी ने संघ प्रमुख से बात की होगी, सलाह मशविरा हुआ होगा, लेकिन अंतिम फ़ैसला वो ख़ुद लेते होंगे. ऐसी स्थिति भी है कि मोदी जो कहेंगे, उसे संघ प्रमुख सुनते होंगे. एक और अहम बात ये रही कि इसमें किसी सहयोगी दल को शामिल नहीं किया गया.
जनता दल यूनाइटेड, शिवसेना और अकाली दल जैसे सहयोगी दलों को भी शामिल नहीं किया गया है.इसका संदेश साफ़ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सहयोगियों की नहीं सुनने वाले हैं. वो वही करेंगे जो उनके अपने एजेंडे के मुताबिक होगा.कल तक वे जिन नीतीश कुमार को अपना क़रीबी सहयोगी बता रहे थे, उनकी पार्टी को उन्होंने मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं दी. यही हाल पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल का भी है. इन सहयोगी दलों की चाहत भी बस सत्ता में हिस्सेदारी पाने की है. लिहाजा एनडीए के भविष्य को लेकर ख़तरे की कोई बात नहीं है, क्योंकि एनडीए भी केवल एक आदमी पर चल रहा है, और वो शख़्स नरेंद्र मोदी हैं. हालांकि इस बदलाव के बाद नरेंद्र मोदी के सामने चुनौती बढ़ गई है कि वे अपने फ्लैगशिप योजनाओं को किस तरह से पूरा करते हैं. क्योंकि 2019 के चुनाव में लोग सवाल तो पूछेंगे. मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया हो, नमामि गंगे हो, इन सबके बारे में सवाल पूछेंगे. इन पर ध्यान देना होगा.ये भी देखना होगा कि क्या लोगों को रोजगार मिल पाएगा, क्या अर्थव्यवस्था की विकास दर एक बार फिर से सात-आठ फ़ीसदी तक पहुंच पाएगी, अब ये चुनौती मोदी और उनकी सरकार के सामने होगी.