डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को बलात्कार के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद हिंसा भड़क उठी. सवाल उठता है कि क्या इन हालात को टाला जा सकता था? डेरा सच्चा सौदा का मामला हो, जाट आरक्षण का मुद्दा हो या फिर संत रामपाल का, तीनों ही मामलों में कुछ बातें कॉमन हैं. इनमें सरकार ने भीड़ इकट्ठी होने दी.जाट आंदोलन से पहले जाट नेताओं ने भाषणों में साफ़ कर दिया था कि हम दिल्ली का पानी, दूध और सब्ज़ियां रोक देंगे. चाहे राजनीतिक कारण कह लीजिए या फिर सरकार की अकर्मण्यता, वह इनसे सख़्ती से कभी पेश नहीं आई. रामपाल के साथ भी यही हुआ, जबकि साफ़ दिख रहा था कि क्या होने जा रहा है.

डेरा सच्चा सौदा वाले मामले में जब लोग इकट्ठे हो रहे थे तो कह रहे थे कि हम गुरुजी के दर्शन करने आ रहे हैं. किसी को दर्शन करना है तो वह पंचकुला क्यों आता, सिरसा जाता. लगता है सरकार जानबूझकर समझना नहीं चाह रही थी. पहले वह जाटों को नाराज़ नहीं करना चाहती थी और अब डेरे वालों को नाराज़ नहीं करना चाह रही थी. 2014 के चुनाव में डेरे के प्रभाव वाले क्षेत्र में बीजेपी को काफ़ी सीटें मिली हैं. सिरसा के अलावा हरियाणा के कई ज़िलों में डेरा समर्थकों का असर है. डेरा समर्थक भले चुनाव में निर्णायक भूमिका में न हों लेकिन छोटे अंतर की लड़ाई में डेरा के समर्थकों के वोट जीत और हार का फ़ैसला करते हैं.

ध्यान होगा कि हरियाणा चुनाव से पहले बीजेपी के उम्मीदवार सिरसा में संत के डेरे पर गए थे. उनके साथ बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी थे. चुनाव जीतने के बाद वो भी धन्यवाद अदा करने वहां पहुंचे थे.शायद यही कारण रहा होगा कि जब ये डेरा समर्थक एक हफ़्ता पहले से ही पंचकुला में इकट्ठा हो रहे थे, तो सरकार ने इन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की. जब एक पार्टी के विधायक कहीं माथा टेकने जाते हैं तो अधिकारियों को मैसेज जाता है कि ये लोग सरकार के लोग हैं, इनके साथ कुछ करने की ज़रूरत नहीं है. पहले पंजाब और हरियाणा तो एक ही थे. अकाली दल में जाट और सिखों का प्रभुत्व रहा है. जबकि पंजाब और हरियाणा में जो ज़्यादातर डेरे हैं, उनके समर्थक या तो पिछड़े हैं या फिर दलित. इन्हें ये डेरे अपनी पहचान साबित करने का मौका देते हैं.
क्योंकि ये पिछड़े और दलित इन डेरों के साथ हैं, इसलिए राजनेता इलेक्शन के वक्त समर्थन के लिए डेरों के पास जाते हैं. जैसे यह डेरा पहले कांग्रेस का समर्थक हुआ करता था.

चाहे कांग्रेस हो ,बीजेपी या इंडियन नेशनल लोकदल; डेरा प्रमुख को कोई नाराज़ नहीं करना चाहता क्योंकि सभी पार्टियां उनसे वोट मांगने जाती हैं. पंजाब और हरियाणा में डेरे पिछड़े और दलित सिखों को इकट्ठा करने की जगह बन गए हैं. पारंपरिक तौर पर जाट और सिखों की पार्टी माने जाने वाले शिरोमणि अकाली दल इसी वजह से डेरों को पसंद नहीं करते हैं. यही कारण है कि डेरों और अकाली दल के बीच तनातनी चलती है. हकीकत यह है कि 2012 के पंजाब विधानसभा चुनाव में डेरा ने कांग्रेस का समर्थन किया था. यही वजह है कि कांग्रेस के नेता पंजाब या हरियाणा में डेरा समर्थकों की हिंसा की खुलकर आलोचना करते कम दिखेंगे.जब डेरा प्रमुख का केस हाई कोर्ट में लगा हुआ था, एक वकील ने एक याचिका डाली थी कि सरकार पंचकुला में व्यवस्था बनाने में नाकामयाब रही है. हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए हैं और लोगों में असुरक्षा का भाव है. इस याचिका पर सरकार से कोर्ट ने पूछा कि आपने क्या इंतज़ाम किए हैं. इस पर सरकार ने कहा कि हमने सेक्शन 144 का ऑर्डर निकालकर निषेधाज्ञा लागू कर दी है. मगर जब उसे पढ़ा गया तो उसमें लिखा था कि शस्त्र ले जाने पर पाबंदी है, लोगों के जाने पर पाबंदी नहीं है.

जब चीफ जस्टिस की बेंच ने पूछा कि यह क्या है तो सरकार ने कहा कि यह `क्लैरिकल मिस्टेक` है. तो कोर्ट ने कहा कि इसमें सरकार और डेरा के बीच में मिलीभगत नज़र आ रही है. सबसे पहले सरकार को डेरे को कहना चाहिए था कि लोगों का आना बंद किया जाए. लेकिन जब लोगों ने आना शुरू किया, तब भी कुछ नहीं किया गया. सरकार की तरफ़ से एक भी सख़्त बयान नहीं आया कि यह सब रुकना चाहिए, यह बर्दाश्त नहीं होगा.लाठी या आंसू गैस तो बाद की चीज़ें हैं. इससे पहले प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है.

दुर्भाग्य से ऐसा सिर्फ़ हरियाणा में नहीं हो रहा. जब दिल्ली में यमुना के तट पर श्री श्री रविशंकर ने इतना बड़ा आय़ोजन किया था, तब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने उसपर फ़ाइन लगाया. तब भी प्रधानमंत्री और कई केंद्रीय मंत्री वहां गए. अब 28 अगस्त को डेरा प्रमुख को सज़ा सुनाई जाएगी. अगर सरकार ने अभी तक सबक नहीं लिया है तो मुश्किल हो जाएगी. मगर उसने साफ़ संदेश डेरे को दे दिया कि अब जो हुआ, वह दोबारा नहीं होगा. अगर सख़्ती से कहा गया कि आगे यह नहीं चलेगा तो दोबारा ऐसे हालात नहीं बनेंगे.

सभार बी.बी.सी