मायावती का राज्यसभा से इस्तीफ़ा आने वाले दिनों में सियासी भूचाल भी ला सकता है। फिलहाल सरसरी तौर पर इसे राजनीतिक खुदकशी माना जा रहा है। लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थों को करीब  से देखने के बाद समझ आता है कि शतरंज की बिसात पर मायावती ने बहुत सोच-समझ कर चाल चली है। दरअसल, लोकसभा की एक भी सीट न जीत पाने और उत्तर प्रदेश विधानसभा में महज 19 सीटें जीत पाने के बाद  मायावती को समझ में आ गया था कि उनकी राजनीति में गिरावट अब एक स्थाई रूप धारण कर चुकी है. लोकसभा चुनाव में हारने के बाद भी ये सांत्वना थी कि भले ही भाजपा ने कितना भी प्रचंड बहुमत क्यों न पा लिया हो लेकिन बसपा ने अपना आधार वोट बैंक बचा लिया है. लेकिन तीन साल बाद हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे आते-आते यह गलतफहमी भी दूर हो गई.

इस चुनाव में वोट प्रतिशत बढ़कर 22.2 जरूर हुआ लेकिन विधानसभा में सीटें सिर्फ 19 रह गई. लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में 19.7 प्रतिशत वोट मिले थे. ( हालाँकि राष्ट्रीय स्तर पर उसे महज चार फीसदी वोट ही नसीब हुए). राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा भी खतरे में पड़ गया. थोड़ा पीछे जाने पर यह मालूम चलता है कि 2007 में बसपा ने 30.43 प्रतिशत वोट पाकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में ना सिर्फ 206 सीटें जीती थी बल्कि पूर्ण बहुमत की सरकार भी बनाई थी. सोलह साल बाद उत्तर प्रदेश में किसी एक दल को बहुमत मिला था. पांच साल बाद वह अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से हार गयीं लेकिन फिर भी उन्होंने लगभग 26 फीसदी वोट पाकर 80 सीटें जीती.


यानी 2007 के बाद से बसपा का वोट प्रतिशत लगातार गिरता गया. 2017 में यह गिरावट मामूली रूप से थमी जरूर लेकिन सीटों में नहीं तब्दील हो पाई. मायावती को लगने लग गया कि सवर्ण और पिछड़ा वोट बैंक उनसे दूरी बना चुका है. और सिर्फ दलित वोटों के बूते वह 20-22 प्रतिशत वोट जरूर पा सकती हैं लेकिन सीटें जीतना और सरकार बनाना उनके लिए सिर्फ कल्पना की वस्तु रह गई है. नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी से लेकर उनके कई सिपहसालार उनका साथ छोड़ चुके हैं. सभी का कहना है कि आज की बसपा कांशीराम की बसपा नहीं है, यह उनके आदर्शो से बहुत दूर जा चुकी है. रही-सही कसर सहारनपुर दंगों ने पूरी कर दी. इन दंगो के दौरान भाजपा समर्थित चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी के जोरदार प्रदर्शन के सामने बसपा का प्रतिरोध फीका पड़ गया. या यूं कहें कि सिर्फ सांकेतिक होकर रह गया. इन्हीं दंगो का मामला राज्य सभा में उठाने के दौरान हुई टोका टाकी से नाराज़ हो मायावती ने इस्तीफे का एलान कर दिया. उन्हें समझ में आ गया था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उनकी हार का एक बड़ा कारण उनके दलित वोट का एक हिस्सा भाजपा की ओर मुड़ जाना रहा है. उत्तर प्रदेश के एक दलित नेता रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. यदि दलित भी बड़ी संख्या में भाजपा की और मुड़ गए तो मायावती के पास कुछ भी नहीं बचेगा.


पैरों के नीचे से खिसक चुकी ज़मीन और राज्यसभा में मायावती के महज नौ माह का कार्यकाल शेष रहने के कारण उन्हें समझ में आ गया था यदि वह तेजी से कोई कदम नहीं उठाती तो वह जल्द ही अतीत बनकर रह जाने वाली है. क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा में उनके दल की इतनी ताकत भी नहीं रह गई है कि वह अपनी पार्टी सुप्रीमो को दोबारा राज्यसभा भेज पाएं.  क्या है रणनीति?--पिछले दो माह में समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव से उनकी तीन मुलाकातें अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की कोशिश थी. इसी बीच लालू की भाजपा के ख़िलाफ़ एक विशालकाय राजनीतिक विकल्प पेश करने की अपील मायावती के लिए मानो संजीवनी का काम कर गई. लालू प्रसाद यादव के मायावती को दिए बिहार से राज्यसभा जाने के प्रस्ताव को मायावती ठुकरा नहीं पाई. लेकिन इस्तीफा देने के लिए उन्होंने ज़बरदस्त रणनीति बनाई. उन्हें लगा कि दलितों के मुद्दे पर उनके इस्तीफे के बाद वे विपक्षी एकता की धुरी बन सकती हैं. वे शहीदाना अंदाज़ अख्तियार करना चाहती थीं. वैसे ही जैसे डॉ. भीमराव आंबेडकर ने दलितों को एकजुट करने के लिए जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था.


इसीलिए उन्होंने प्रश्नकाल में सहारनपुर में दलितों की मारपीट का मुद्दा उठाया. वे जानती थीं कि नियम के अनुसार प्रश्नकाल के दौरान उठाए गए किसी भी मुद्दे पर कोई सदस्य तीन मिनट से अधिक नहीं बोल सकता. लेकिन दलितों की पिटाई को राजनीतिक मुद्दा बनाने को ठान कर आई मायावती समय से अधिक बोलने की जिद को लेकर अड़ी रही और उपसभापति के मना करने पर गुस्से में इस्तीफ़े की धमकी देते हुए निकल गई. विपक्षी एकता के लिए पृष्ठभूमि यदि मायावती का इस्तीफा राष्ट्रीय जनता दल समाजवादी पार्टी, बसपा, शाम दल, कांग्रेस और ऐसे अन्य समान विचारधारा वाले दलों को 2019 में भाजपा के सामने एक संयुक्त विपक्ष बनाकर पेश करता है तो ही मायावती अपने मकसद में कामयाब होंगी. उनके सामने 1993 का उदाहरण है जब सपा-बसपा गठबंधन ने बाबरी मस्जिद के गिरने के एक साल के अंदर हुए उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में भाजपा को करारी मात दी थी. तब यदि दोनों दलों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ काम न किया होता तो दलितों-पिछड़ों-मुसलमानों के गठजोड़ के आगे कोई दूसरा दल टिक नहीं सकता था. उपराष्ट्रपति के चुनाव में बीजू जनता दल के विपक्ष के साथ खड़े होने के फैसले से विपक्षी एकता के प्रयासों को बल मिला है. यह कोशिश कितनी कामयाब होगी और संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास कहां तक जाएगा यह अगले एक साल में पता चलेगा.