इंद्र वशिष्ठ (वरिष्ठ पत्रकार)
एक पत्रकार के साथ वरिष्ठ पुलिस अफसरों द्वारा ऐसा व्यवहार अशोभनीय और शर्मनाक है ऐसा करके पुलिस ने पत्रकारों के एक वर्ग को अपने खिलाफ कर लिया है। पुलिस मीडिया रिलेशन जो एक लंबे  अरसे से अच्छे चल रहे थे। ख़राब होना शुरू हो जाएगा और पुलिस की भद्द पिटेगी। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि पुलिस अफसर अच्छा पीआरओ नहीं बन सकता क्योंकि इस चक्कर में वह अच्छा पुलिस अफसर भी नहीं रह पाता। 1983से सेवानिवृत्ति ( 2006) तक दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता रहे रवि पवार ने मेरे साथ पुलिस अफसरों के व्यवहार पर यह टिप्पणी फेसबुक पर की है। इसके बाद पीआरओ ब्रांच के एएसआई अनूप कालिया ने टिप्पणी की कि हम कोशिश कर रहे हैं।
इस पर रवि पवार ने जो टिप्पणी की वह दिल्ली पुलिस के पीआरओ और पीआर के गिरे स्तर को उजागर करने लिए पर्याप्त है।


रवि पवार ने कहा माफ़ करना , मैंने महसूस किया है कि पुलिस  का प्रेस रिलेशन उस स्तर पर आ गया है जैसा जब मैं दिल्ली पुलिस के पीआरओ के पद पर आसीन हुआ था। यह दिल्ली पुलिस के लिए बुरा दिन है। भारतीय सूचना सेवा के रवि पवार जब पुलिस के पीआरओ बने उस समय विभाग में तैनात मिनेस्टीरियल का  हवलदार जगजीवन बक्शी स्वयंभू पीआरओ के रूप में मठाधीश क्राइम रिपोर्टर और पुलिस अफसरों तक को अपनी अंगुलियों पर  नचाता था।  पीआरओ को बिल्कुल नकारा कर दिया गया था। मठाधीश पत्रकारों के विरोध के बावजूदर रवि पवार ने यह सब बंद करा दिया। और प्रेस पुलिस रिलेशन की पेशेवर गरिमा को बहाल  किया । इसके बाद जगजीवन बक्शी दिल्ली पुलिस से चला गया। आज़ भी हालत यहीं हैं  प्रेस रिलेशन जैसा अहम कार्य एसआई प्रेस संजीव और एएसआई अनूप कालिया जैसे के भरोसे अफसरों ने छोड़ा हुआ है इससे पता चलता है कि पुलिस कमिश्नर या आईपीएस पीआरओ की नज़र में प्रेस की कितनी गरिमा और अहमियत है।एसआई प्रेस का कार्य सिर्फ अफसरों से मिली सूचना प्रेस को देना भर  है। प्रेस से अच्छे संबंध बना कर पुलिस की छवि सुधारने और पत्रकारों की पेशेवर दिक्कतों को समझने की कुव्वत और उनके समाधान की हैसियत पीआरओ में हो सकती हैं।


मेरे साथ जो हुआ उससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि स्थायी पेशेवर पीआरओ होता तो यह नहीं होता और निचले स्तर के पुलिस कर्मी भी किसी पत्रकार की गरिमा को ठेस पहुंचाने का दुस्साहस नहीं करते। रवि पवार से अनेक खबरों को लेकर मेरे मतभेद रहते थे और दोनों में जबरदस्त बहस भी होती थी। इसके बावजूद प्रेस की अहमियत और गरिमा का वह पूरा ख्याल रखते थे। पीआर ब्रांच में पूरा अनुशासन था ।आज की तरह कोई निरंकुश नहीं था। मेरे साथ जो हुआ उसके लिए पूरी तरह पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक,पुलिस के मुख्य प्रवक्ता दीपेंद्र पाठक और पीआरओ मधुर वर्मा  जिम्मेदार है। दीपेंद्र पाठक और मधुर वर्मा को प्रेस रिलेशन की अहम  जिम्मेदारी दी हुई हैं।इन दोनों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई और मेरे गुहार लगाने के बावजूद मीडिया के गुंडों को मेरे ऊपर अभ्रद टिप्पणी करने से रोका नहीं। उनको  व्हाटस ऐप  ग्रुप से हटाने की बजाय मुझे ही ग्रुप से हटा दिया। इतना ही नहीं ग्रुप से हटाने के बावजूद मेरे बारे में अभ्रद टिप्पणियां जारी होने से साबित होता है कि आईपीएस अफसर इसमें शामिल हैं। पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक इस लिए दोषी है  क्योंकि मैंने ईमल, एमएमएस द्वारा उनसे भी गुहार लगाई थी। जिससे कि अमूल्य पटनायक यह बहाना न बना सके कि आप यह मेरी जानकारी में ला देते तो मैं एक्शन लेता।  किसी पत्रकार की गरिमा को ठेस  पहुंचाने  वाले पीआर ब्रांच के संजीव कुमार और अनूप को भी आईपीएस अफसरों का संरक्षण नहीं होता तो वह मेरे साथ ऐसा करके का दुस्साहस नहीं करते हैं।पूरे घटनाक्रम से यह बात साबित होती है। तीन अप्रैल को इंस्पेक्टर संजीव ने बिना कोई कारण बताए मेर नाम पुलिस ग्रुप से हटा दिया। मैंने एतराज जताया तो उसने कहां कि एक दो दिन में दोबारा शामिल कर दूंगा। लेकिन वह मुझे टरकाता रहा मैंने उसे पूछा भी कि क्या उसने मेरा नाम हटाने से पहले अपने वरिष्ठ अफसरों से पूछा था और उसे किसी का भी नाम हटाने का अधिकार क्या  पीआरओ ने दिया है। मैंने पीआर ब्रांच के इंचार्ज गोपाल कृष्ण आदि के सामने भी कहा। इंस्पेक्टर गोपाल कृष्ण ने मुझे कहा कि संजीव छुट्टी पर जाने वाला है मैं तब आपका नाम शामिल कर दूंगा। संजीव इंस्पेक्टर गोपाल  का मातहत है लेकिन संजीव के अफसरों का मुंह लगा होने के कारण गोपाल भी मेरे साथ न्याय करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।तब मैंने दीपेंद्र पाठक को यह सब बताया । तब मेरा नाम ग्रुप में शामिल किया । संजीव द्वारा पुलिस की प्रेस रिलीज के साथ निजी संस्था ब्रह्म कुमारी का प्रचार करने को मैंने उजागर किया था। पीआर ब्रांच में होने से मीडिया वालों से उसकी पहचान होती है इसलिए इस संस्था के प्रचार के मकसद से ही संजीव पीआर ब्रांच में इतने साल से जमा हुआ है। वर्ना  पीआर ब्रांच में एसआई प्रेस की भूमिका ऐसी नहीं है कि किसी व्यक्ति विशेष के जाने से काम रुक जाएगा । संजीव के अलावा अन्य इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर भी तो अपना कार्य जिम्मेदारी और बिना किसी निजी लाभ के कर ही रहे हैं । राजन भगत को हटाने के बाद ही यह अराजकता शुरू हुई है संजीव इंस्पेक्टर गोपाल का मातहत है लेकिन अफसरों ने न जाने किस निजी वजह से संजीव को महत्व दे कर व्यवस्था ही ख़राब कर दी। पीआर ब्रांच में तो ऐसी व्यवस्था थी कि किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर हुए बिना काम सुचारू रूप से चलता था।  एएसआई अनूप कालिया ने दो अक्टूबर को पुलिस इन्फोर्मेशन फार मीडिया नामक ग्रुप से मेरा नाम हटा दिया। मैंने उससे कहा कि औरों के हटाएं तब मेरा हटाना चाहिए था। इसके बाद चार अक्टूबर को अभ्रद टिप्पणियां करने वालों का हटाने की बजाय मेरा नाम इंस्पेक्टर गोपाल कृष्ण ने दोनों ग्रुपों से हटा दिया। इन सबके लिए आईपीएस अफसर ही जिम्मेदार है।  बिना उनके कहें ऐसा नीचे वाले करने का दुस्साहस नहीं कर सकते। अफसरों की शह नहीं होती तो अभ्रद टिप्पणियां करने वालों के खिलाफ और मेरा  नाम हटाने वाले संजीव, गोपाल और अनूप के खिलाफ वह अब तक कार्रवाई कर चुके होते।


अनूप ने मुझे फोन करके पुलिस मुख्यालय आकर इंस्पेक्टर गोपाल कृष्ण से मिलने को कहा। अनूप ने कहा कि उसने गोपाल कृष्ण को समझाया हैं कि गलती सुधारनी चाहिए। अनूप ने ऐसा जाहिर किया जैसे की वही एक समझदार है और गोपाल कृष्ण और आईपीएस अफसरों को समझ ही नहीं है। इसके अलावा भी पीआर ब्रांच में मुझे अच्छी तरह से जानने वाले व्यक्तियों के माध्यम से यह कोशिश की जा रही है कि मैं पीआरओ से मिल लूं। मैंने उनसे यही कहा कि मेरी मानहानि करने वालों के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई तो मैं कैसे मान लूं कि आईपीएस इसमें शामिल नहीं है। इस तरह रवि पवार की वह बात सच साबित होती है कि पुलिस का पीआर का स्तर कितना गिर गया है। पीआरओ या किसी अफसर का सीधे बात न करके अपने अधीनस्थों को आगे करना दिखाता है कि पुलिस के प्रेस रिलेशन का पतन होना शुरू हो गया है। पुलिस को प्रेस की अहमियत और गरिमा का ख्याल रखना चाहिए। इसके लिए सबसे जरूरी हैं कि पेशेवर स्थायी पीआरओ होना चाहिए। दीपेंद्र पाठक, मधुर वर्मा वाकई पुलिस की छवि सुधारने और पीआरओ का काम करने के प्रति गंभीर  हैं तो ऐसे अफसरों को पूर्णकालिक पीआरओ नियुक्त किया जाना चाहिए। इनको पुलिस के किसी अन्य महत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। पीआरओ का काम  बहुत जिम्मेदारी, समझदारी और संवेदनशीलता से किया जाने वाला कार्य है। टीवी में बयान देने तक ही यह कार्य समिति नहीं हैं। सिर्फ मीडिया में अपनी निजी छवि बनाने के लिए पीआरओ के पद का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। अगर यह तय कर दिया जाए कि पीआरओ बनने के इच्छुक आईपीएस अफसर  को पीआरओ के पद के अलावा कोई दूसरी अहम जिम्मेदारी नहीं दी जाएगी तो शायद ही कोई आईपीएस पीआरओ बनने के लिए आगे आएगा। क्योंकि वह पीआरओ का  काम करने के लिए तो आईपीएस नहीं बना है । ऐसे में गैर जिम्मेदार, अपनी छवि अच्छी दिखाने के लिए टाइम पास प्रवक्ता बनने वालों से मुक्ति होगी और इससे  पुलिस का ही भला होगा। समर्पण और जिम्मेदारी से काम करने वाला पीआरओ होगा तो ही प्रेस से रिलेशन अच्छे होंगे और तभी तो वह पुलिस की छवि सुधारने में मीडिया से मदद ले सकता है। पीआरओ की नज़र में अगर पत्रकार का ही सम्मान नहीं होगा। तो पत्रकार पुलिस की वैसी ही छवि ही तो लोगों में पेश करेगा। आईपीएस पीआरओ का सीधे बात न करके अपने अधीनस्थों को आगे करना, अधीनस्थों के सामने खुद को ही कमजोर  साबित करना है।


पीआर ब्रांच में मौजूद लोगों ने भी खुद माना है कि प्रेस रिलेशन ख़राब करने में संजीव और अनूप का जबरदस्त योगदान है। ब्रांच के लोगों को अगर भरोसा होता कि आईपीएस पीआरओ उनकी बात सुनकर  कार्रवाई करेंगे तो  वे लोग मुझे बताने से पहले उनको ही बताते। अनूप की पत्नी लंबे समय से पुलिस कमिश्नर कार्यालय में है। इन लोगों का मानना हैं इसलिए अनूप का कुछ नहीं बिगड़ेगा। आईपीएस अफसरों ने संजीव का तबादला भी रद्द करा दिया था। अगर एएसआई और एसआई प्रेस संजीव ही प्रेस रिलेशन बनाने के लिए सक्षम और काबिल है तो फिर आईपीएस को पीआरओ  लगाने की जरूरत ही क्या है। आप चाहे किसी  को भी मुंह लगाओ किसी को कोई एतराज़ नहीं होगा।लेकिन कम से कम पत्रकार की मानहानि कर आईपीएस जैसे पद की गरिमा तो मत गिराइए। क्या आप अपनी गिनती ऐसे  आईपीएस के रूप में कराना चाहेंगे  जो खुद को सुपर काप दिखाते रहे ,लेकिन जिनके बारे में कहा जाता है कि उसे तो उसका पीए,एसओ या एसएचओ ही चलाते हैं। ऐसे आईपीएस अपने पतन के लिए खुद जिम्मेदार रहे हैं।