अनवर चौहान

राजनीति में कल क्या होगा पता नहीं होता है. यह मात्र एक कहावत नहीं भारतीय राजनीति का सच है. केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में नियुक्त किए गए वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ल इसका जीता जागता उदाहरण हैं. पिछले साल भाजपा द्वारा उन्हें राज्यसभा में भेजे जाने से पहले वे 14 साल तक राजनीतिक वनवास में थे. जानबूझकर नहीं, बल्कि यह उनकी मजबूरी थी. जनप्रतिनिधि के तौर पर वह 1989 से वे लगातार पांच बार उत्तर प्रदेश विधानसभा में चुने गए. कल्याण सिंह से लेकर राजनाथ सिंह के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे. उच्च शिक्षा, ग्रामीण विकास और कारागार जैसे महत्वपूर्ण विभाग संभाले. लेकिन 2002 में भाजपा की सरकार का कार्यकाल खत्म होने के बाद मानो शुक्ल के राजनीतिक जीवन पर भी ग्रहण लग गया.


उनका चुनाव क्षेत्र गोरखपुर जिले में था. वही गोरखपुर जहां से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुन कर आते हैं. ज़िले में शुक्ल के बढ़ते प्रभाव को योगी सहन नहीं कर पाए. 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने शिवप्रताप शुक्ल के ख़िलाफ़ एक निर्दलीय उम्मीदवार राधा मोहन अग्रवाल को लड़ाया. शुक्ल को पार्टी का समर्थन था, लेकिन फिर भी वह योगी के प्रभाव के सामने पराजित हुए. उसके बाद आज तक शुक्ल ने कोई भी चुनाव नहीं लड़ा. पंचायत का भी नहीं. यह भी सही है कि उसके बाद से शुक्ल ने योगी के सामने समर्पण भी नहीं किया. वह संगठन में सक्रिय हो गए. पिछले 14 साल से वह भाजपा की राज्य इकाई में विभिन्न पदों पर काम करते रहे. साथ ही इस दौरान भारतीय जनता पार्टी में राज्य इकाई से लेकर केंद्रीय नेतृत्व और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभावशाली अधिकारियों तक, सभी से उन्होंने गुहार लगाई कि उन्हें कहीं तो समायोजित किया जाए. यदि योगी के प्रभाव में पार्टी उन्हें लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा सकती तो कम-से-कम विधान परिषद में तो नामित कर ही सकती है. लेकिन योगी आदित्यनाथ का प्रभाव अधिक था शुक्ल को किसी भी जगह पर सफलता नहीं मिली.


लेकिन यह तभी तक था जब तक उत्तर प्रदेश में अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने संगठन की कमान नहीं संभाली थी. जो व्यक्ति अपनी पूरी ताक़त विधान परिषद की सदस्यता पाने के लिए लगा रहा था अचानक उसे पिछले साल राज्यसभा में भेज दिया गया. और तब भी शुक्ल भी अंदाज नहीं होगा कि अगले एक साल मे वे केंद्रीय मंत्री भी बन जाएंगे. शुक्ल की केंद्रीय मंत्रिमंडल में नियुक्ति योगी को किसी प्रकार की चुनौती देने के लिए नहीं है. न ही योगी के स्थान पर गोरखपुर से अगला लोकसभा चुनाव शुक्ल को लड़ाने का पार्टी का इरादा है. उनका तो अभी राज्यसभा का पांच वर्ष का कार्यकाल बाकी है. गोरखपुर से केवल वही उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर लड़कर कामयाब हो सकता है जिसे योगी आदित्यनाथ का आशीर्वाद प्राप्त हो. योगी के खिलाफ जाने का हश्र शिवप्रताप शुक्ला से बेहतर दूसरा कोई भी नहीं जानता. वित्त राज्य मंत्री के रूप में शुक्ल जनता के बीच कोई लोकप्रिय छवि बना पाएंगे, संभव नहीं लगता. यूँ भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल 37 राज्य मंत्रियों में से कितने ऐसे हैं जो अपनी
पहचान बना पाए हैं. अधिकतर का तो लोग न नाम जानते हैं और न ही चेहरा पहचानते हैं.


लेकिन शुक्ल की केंद्रीय मंत्रिमंडल में नियुक्ति योगी आदित्यनाथ की निरंकुश राजनीतिक शैली पर अंकुश ज़रूर लगा सकती है. उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता का कहना था, "वह बिल्कुल वैसे ही है कि जैसे किसी बलशाली व्यक्ति को आप अपने घर बुलाकर पास ही बन रहे भोजन में मिर्च का छौंक लगा दिया जाए. बस वह परेशान होता रहेगा. कुछ कर इसलिए नहीं पाएगा कि वह आपके घर में बतौर अतिथि आया है." ऐसा नहीं है कि शुक्ल को मंत्री बनाने के राजनीतिक निहितार्थ नहीं हैं. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में राजपूतों का बोलबाला है और ब्राह्मणों में नाराज़गी व्याप्त है. कलराज मिश्र की केंद्रीय मंत्रिमंडल से छुट्टी होने के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश से एक ब्राह्मण नेता की तलाश थी. योगी के साथ उप मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान डॉक्टर दिनेश शर्मा का उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों पर बहुत अधिक असर नहीं है.


रमापति राम त्रिपाठी और हरीश द्विवेदी जैसे नेता पार्टी के उम्र के पैमाने पर खरे नहीं उतर रहे थे. प्रदेश के मौजूदा ब्राम्हण नेताओं में वरिष्ठता और परिपक्वता की दृष्टि से शुक्ल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के गणित में ठीक बैठते हैं. शिवप्रताप शुक्ल भी कलराज मिश्र की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं. राज्य के संगठन मंत्री सुनील बंसल और उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रभारी ओम प्रकाश माथुर से उनके अच्छे संबंध है.संघ के राष्ट्रीय संगठन मंत्री कृष्ण गोपाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री शिव नारायण की राय ने भी शिवप्रताप शुक्ल को राज्यसभा में समायोजित करने की पुरज़ोर सिफ़ारिश की थी. इसके बावजूद शिव प्रताप शुक्ल मात्र एक राज्यसभा सदस्य होकर ही अपना 6 वर्ष का कार्यकाल बिता देते यदि पांच महीने पहले योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं नियुक्त किया जाता.


योगी की न तो सुनील बंसल से पटरी खाती है और न ही उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य. दोनों अमित शाह के ख़ास हैं. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व का आदेश भी मानना है कि हर बात में योगी को इन्हीं दोनों से परामर्श करना है. संघ के दबाव में योगी को मुख्यमंत्री तो बना दिया गया है, लेकिन तेज़ रफ़्तार से सरकार चला रहे योगी पर काबू करने के लिए पार्टी नेतृत्व तरह तरह के उपाय कर रहा है. योगी को हटाने का जोखिम भी कोई मोल लेना नहीं चाहते क्योंकि इससे पूरे राज्य में ठाकुर भाजपा से नाराज हो जाएंगे. भाजपा नेतृत्व को अहसास है कि योगी पार्टी से बाहर रहकर कल्याण सिंह की तरह भाजपा का कल्याण करने में पूरी तरह सक्षम हैं. इसीलिए शेर की सवारी कर रही पार्टी किसी तरह इस शेर की रफ़्तार पर काबू पाना चाहती है.